जिंदगी की इमारत की
तूं थी री लाडो! स्थाई सी बुनियाद।
अस्थाई सा वो ईट गारे का एक तरफ बनाया हुआ छोटा सा कमरा नहीं थी जो कुछ दिन ही रहता है आबाद।।
कौन सी ऐसी भोर शाम है,
जब तूं ना आती हो याद।।
जुगनू नहीं आफताब थी तूं
हर्फ नहीं,पूरी की पूरी किताब थी तूं
दिया भी बहुत ईश्वर ने तुझे बहुत एक हाथ से,
पर लिया भी बहुत कुछ तुझ से दूजे हाथ से,
निर्मल चित की,ना ईर्ष्या ना अहंकार ना कोई अवसाद विषाद।।
जिंदगी की इमारत की,
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