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एक ही गाड़ी के दो पहिए(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))


एक ही गाड़ी के दो पहिए,
दोनो से ही होता घर द्वार।
न कम, न कोई ज्यादा,
प्रेम ही इस नाते का आधार।।

*अनजान राह के दो मुसाफिर*
फिर एक सफर और मंजिल भी एक।
धूप छांव सी ये जिंदगी,
बस मन में हो दोनो के भाव नेक।।
फिर आसान सा हो जाता है सफर,
बदलते रहते हैं किरदार।
पहले पति पत्नी,फिर मात पिता
फिर दादा दादी सिलसिलेवार।।
एक ही गाड़ी के दो पहिए,
दोनो से होता है घर द्वार।।

बस एक शर्त होती है प्रेम की,
हों सम्मान के दोनो ही हकदार।
शादी के तरकश में बस दो तीर हों,
मधुर वाणी और मधुर व्यवहार।।
सुख दुख हों सारे सांझे सांझे,
समर्पण और विश्वास ही नाते का आधार।।

ऊपर वाले की होती है मर्जी,
जुड़ते हैं जब यूं अंजान परिवार।
जोड़ी धरा पर नहीं,
बनती है आसमा में,
जाने ये सारा संसार।।
एक ही गाड़ी के दो पहिए
दोनो से ही होता है घर द्वार।।

कतरा कतरा बनता है सागर,
लम्हा लम्हा बनती जिंदगानी।
सच में जिंदगी और कुछ भी नहीं,
है बस तेरी मेरी कहानी।
इस कहानी में बस हम निभाएं
अपने सर्वोत्तम किरदार।।
परवाह हो एक दूजे के लिए
फिर जुड़ जाते हैं दिल के तार।।

प्रेम की डोर,ना हो कमज़ोर
आए मजबूती इसमें बेशुमार।
एक शर्त है इस नाते की,
ना सोए जिम्मेदारी,
जागते रहें अधिकार।।
एक ही गाड़ी के दो पहिए,
दोनो से ही होता है घर द्वार।

शादी मिलन नहीं मात्र दो लोगों का,
जुड़ते हैं इसमें दो परिवार।।
फलता रहता है ये नाता,
गर सींचा जाए प्रेम से बारम्बार।।
        स्नेह प्रेमचंद

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