एक कमरा उसका भी हो,
है वो भी इसी अंगना की कली प्यारी।
यहीं फला फूला था बचपन उसका,
अब कैसे मान लिया उसे न्यारी।।
नए रिश्तों के नए भंवर में उसके जीवन के अध्याय बदल जाते हैं।
बहुत कुछ छिपा दिल के भीतर,
लब उसके बेशक मुस्कुराते है।।
हर गम हर खुशी में होती है फिर भी पूरी उसकी भागेदारी।
बीता समय तो कैसे मान लिया उसे न्यारी।।
अम्मा बाबुल के सपनो ने जब ली प्रेमभरी अँगड़ाई थी।
तब ही तो लाडो बिटिया इस दुनिया मे आयी थी।।
एक ही चमन के कली पुष्प तो,
होते हैं सगे बहन भाई।
फिर सब कुछ बेटों को सौंप मात पिता ने,
क्यों अपनी लाडो कर दी पराई???
हाथ पीले कर उसके,
मानो अपनी ज़िम्मेदारी निभाई।।
मिले न गर ससुराल भला उसे,
हो जाएगी न वो दुखियारी।
एक कमरा तो उसका भी बनता है,
है मात पिता की वो हितकारी।।
कभी न भूले कोई कभी भी,
थी वो भी इसी अंगना की कली प्यारी।
इतना हक तो उसका भी बनता है,
अधिक नहीं तो एक कमरे की हो साझेदारी।।
विदाई के साथ लाडो के,
क्यों विदा हो जाते हैं सारे अधिकार
जब वो सोने नहीं देती जिम्मेदारी
फिर जागृत क्यों नहीं रहते अधिकार???
उसे कभी पराया मत कहना,
दूर रह कर भी वो करती है प्यार।।
बाबुल का आंगन ही छोड़ती है वो
चिरैया,दिल में तो रहती है ऐसे जैसे आग में चिंगारी।
एक कमरा उसका भी हो,
है वो इसी आंगन की कली प्यारी।।
सुनने में बेशक अच्छा लगता हो
बेटा हुआ है,पर जीने में बेटी सबसे न्यारी।।
हर आहट पर मात पिता की,
रानी बिटिया दौड़ कर आती है।
कभी कुछ नही कहती मन का लाडो,
बस चैन मात पिता के आंचल में पाती है।।
एक दिन चुपचाप विदा होकर,
वो अंगना किसी और का ही सजाती है।
माना हो जाती है गृहस्वामिनी और
पूरे घर पर उसका ही आधिपत्य होता है,
पर पीहर से क्यों उखड़े जड़ उसकी पूरी की पूरी ही,
ये मलाल हर बेटी के दिल मे होता है।।
उसको भी चाहिए होते हैं कतरे बचपन के,
खोई हुई गुड़िया,कुछ अपने पुराने अहसासों की अलमारी।
एक कमरा उसका भी हो
थी वो भी किसी आंगन की कली प्यारी।।
थाली तो हम बेटा होने पर बड़े जोर जोर से बजाते हैं,
पर सही मायने में जीवन को झंकृत
बिटिया से ही बनाते हैं।।
बेटी से मधुर कुछ भी तो नहीं,
है वो स्नेह और सम्मान की अधिकारी।।
नही चाहिए उसे बराबर की हिस्सेदारी,
पर एक कमरा तो उसका भी हो,
आए उसकी भी पीहर में हक़ जताने की बारी।
रख सके बेधड़क अपना बैग वो कहीं भी,संकोच और औपचारिकता की न सुलगे चिंगारी।।
मात पिता नही रहते जब जग में,
फिर सब बदला बदला सा लगता है,
कोई कोना नही लगता फिर अपना
बेगाना सा बिगुल फिर बजता है।।
हो जाता है आहत कोमल सा मन,
उस बिटिया का,जो पीहर कुछ लेने नही आती,
बचपन के पिटारे से,अम्मा बाबूजी के संग
बिताए अनमोल पल चुराने है आती,
भाई बहन के हज़ारों किस्सों पर
प्रेम मोहर लगाने है आती,
दुआओं का अनमोल खज़ाना
पल भर में रोशन कर जाती,
जिस वृक्ष की होती वो डाली
उस वृक्ष को हरा भरा कर जाती,
स्नेह जल से करके सिंचित
मधुर मुलाकातों का तिलक लगाती।।
ऐसी रानी बिटिया होती है जब
फिर एक कमरा तो उसका भी हो,
जहां रख सके अधिकार से बैग वो अपना,
फिर चाहे वो कैसे भी फैला भी हो,
एक अभिनव पहल की,
हर मात पिता कर सकता है शुरुआत,
हर घर मे एक कमरे की,बेटी को
सदा के लिए दे सकता है सौगात।।
शुभ काम में देरी कैसी,
वो कालजे की कौर है हमारी।।
दया नही हक और प्रेम की,
होती है हर बिटिया अधिकारी,
एक कमरा उसका भी हो,
है वो भी इसी अंगना की कली प्यारी।।
नए रिश्तों के नए भंवर में वो अक्सर उलझ
सा जाती है,
पर चलता है ज़िक्र भी पीहर का,वो मन्द मन्द मुस्काती है।।
जहां ज़िन्दगी ने अनुभूतियों का परिचय करवाया था,
जहां फ़िज़ां में सांस लेना उस लाड़ो को
आया था,
उस अपनत्व के आशियाने में है एक कमरे की तो वो भी है अधिकारी,
बहुत सो लिए,अब जागने की आ गयी है बारी।।
स्नेह प्रेमचन्द
एल आई सी हिसार 1
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