**प्रेम और नफरत**
ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर
एक दिन दोनों मिल जाते हैं।
करते हैं कुछ बातें ऐसी,
जिसे सुन सीख बहुत हम पाते हैं।।
कहा प्रेम ने नफरत से कुछ ऐसा,
वो हुई सोचने को मजबूर।
काश समय रहते ही कर लेती,
चित्त से बुराई हर एक दूर।।
कहा प्रेम ने बड़े प्रेम से,"युगों युगों से युगों युगों तक,तुम्हे कुछ भी मेरी बहना नही मिला।
तुम्हारे चमन में एक भी फूल, कभी खुशियों का नही खिला।।
कैसे जी पाती हो??
जब तुम्हे इतना मिलता है दुत्कार।
आ जाओ गर कुटिया में मेरी,
जगा दूंगा तेरे भी दिल मे प्यार।।
क्या बोला प्रेम ने,क्यों बोला प्रेम ने,नफरत को कुछ भी समझ नही आया।
अहंकार की ऐसी दीवार खड़ी थी,अहम उसका न उसको गिरा पाया।।
सुन कर भी अनसुनी कर दी उसने बातें प्रेम की,बोली, दो मुझ को अपना परिचय प्रेम तुम,क्यों सब राग तुम्हारा गाते हैं?????
मुझे तो नही होती कोई ऐसी अनुभूति,तुम्हे पाकर लोग ऐसा क्या पा जाते हैं??????????
सुन प्रेम ने बातें नफरत की,
दिया कुछ ऐसा मधुर जवाब।
सोचती ही रह गई नफरत,
लगाती ही रह गई हिसाब।।
मलिन मनों से हट जाते हैं जब धुंध कुहासे और चित में करुणा का होता है संचार।
मैं ततक्षण वहां आ जाता हूं,
फिर नहीं होता मुझ से इंतजार।।
सबसे बड़ा जो शत्रु है मेरा,
नाम है उसका अहंकार।।
करुणा मेरी मां है और सौहार्द से
पिता का प्यार नाता।
मधुरता मेरी छोटी भगिनी,
सहज भाव है मेरा भ्राता।।
कुछ लोग ही ऐसे हैं जो मेरे आंगन में कभी नहीं आते
अवसाद,विषाद,ईर्ष्या,लोभ,अहंकार नाम है इनके,जिक्र भी इनके मुझे नहीं सुहाते।।
मैं जात ना जानू पात ना जानू
ना जानू कोई सरहद,भाषा या धर्म की दीवार।
बेशक ढाई अक्षर का हूं मैं,
पर संपूर्ण जब में मेरा बड़ा विहंगम और गहरा विस्तार।।
जरा छू कर तो देखो मुझ पारस को,
तुम भी सोना बन जाओगी।
बस एक फर्क आएगा री,तुम नफरत नहीं फिर प्रेम कहलाओगी।।
एक बार करो आलिंगन मेरा,
मुझ में विलय अपने अस्तित्व को कर डालो।
नजर नहीं फिर बदल जाएगा नजरिया तुम्हारा,कुंठाएं व्यर्थ की ना कभी मन में पालो।।
सुन प्रेम की सच्ची बातें,नफरत तो निशब्द सी हो आई।
मुंह लटका कर लगी सोचने,
क्यों मैने अपनी ऐसी फितरत बनाई???
स्नेह प्रेमचंद
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