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रुकने का नहीं लेती नाम(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

आज लेखनी रुकने का 
सच में ही नहीं ले रही है नाम।
खास नहीं,अति खास नहीं,अति अति खास को शत शत प्रणाम।।

मोह नहीं,प्रेम नहीं तुझ से तो सच में था इबादत का नाता।
जग से बेशक चला जाए पर जिक्र और जेहन से तुझ सा कभी नहीं जाता।।

एक बरस कैसे बीता तुझ बिन,
समझ को भी समझ नहीं आता।।
तूं धार ही नहीं नदिया की,
तूं तो थी री सागर,
तुझ से नाते को जीवन में कोई बार बार नहीं पाता।।

तूं तो फेविकोल का गहरा जोड़ थी री,
तेरा टूट कर यूं अचानक चले जाना आज तलक भी समझ नहीं आता।।
मैं भाव लिखती हूं,लोग शब्द पढ़ते हैं
जो कहना चाहती हूं,वो आप सब तक पहुंच नहीं पाता।।

हर भाव की शब्दावली बनी हो ज़रूरी तो नहीं,हर शब्द हर भाव की मांग नहीं सजा पाता।।
शब्द नहीं भाव थी तूं,
प्रेम सुता! सच में प्रेम भरा था तुझ से नाता।।
       स्नेह प्रेमचंद

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