दे देना भाई बस एक उपहार।
दूँ आवाज़ जब भी दूर कहीं से भी,चले आना बहन के घर द्वार।।
औपचारिकता भरा नही ये नाता,
बस प्रेम से इसको निभाना हो आता,
उलझे हैं दोनों ही अपने अपने परिवारों में,
पर ज़िक्र एक दूजे का मुस्कान है ले आता।।
उलझे रिश्तों के ताने बानो को सुलझा कर,अँखियाँ करना चाहें एक दूजे का दीदार।
कच्चे धागे,पर पक्का बंधन,
दे देना भाई बस एक उपहार।।
एक उपहार मैं और मांगती हूँ,
मत करना भाई इनकार।
दिल से निकली अर्ज़ है मेरी,
कर लेना इसको स्वीकार।।
माँ बाबूजी अब बूढ़े हो चले हैं,
निश्चित ही होती होगी तकरार।
पर याद कर वो पल पुराने,
करना उनमें ईश्वर का दीदार।।
उनका तो तुझ पर ही शुरू होकर,
तुझ पर ही खत्म होता है संसार।
कभी झल्लाएंगे भी,कभी बड़बड़ाएंगे भी,
भूल कर इन सब को,उन्हें मन से कर लेना स्वीकार।।
और अधिक तेरी बहना को,
कुछ भी नही चाहिए उपहार।।
हो सके तो कुछ वो लम्हे दे देना,
जब औपचारिकताओं का नही था स्थान।
वो अहसास दे देना,जब लड़ने झगड़ने के
बाद भी,बेचैनी को लग जाता था विराम।।
उन अनुभवों की दे देना भाई सौगात,
जब साथ खेलते,पढ़ते, लड़ते,झगड़ते,
पर कभी भी न दिखाते थे अपनी औकात।।
जब माँ बाबूजी,मैं और तुम बड़े प्रेम से सांझे करते थे अपने हर जज़्बात।
क्या करना है,क्या बनना है,
संभावनाओं की चलती रहती थी बारात।।
कल्पनाओं के जब हम थे अश्व भगाते,
जो चाहिए होता,वो भाग कर लाते,
आप आप नही,मैं और तू की ढपली बजाते,
हो सके तो वो सरल,सहज,अपनत्व भरे से
पल दे देना,संभालूंगी जिन्हें मैं दिन रात।।
जो मन मे था वो तो कह गयी मेरी लेखनी
कर लेना भाई स्वीकार।।
स्नेहप्रेमचंद
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