पूछन लागी जब मेरी सखियाँ,
क्या राखी का तू लायी है?????
कैसे कहूँ मै जो लायी हूँ,
तुझको सखी री नाही दिखेगा।
भाई प्रेम का पुष्प है जो,
वो बहना के दिल मे ही खिलेगा।।
कैसे बताऊँ, भाभी की बतियाँ, अपनेपन की लंबी सी रतियाँ।।
कासे कहूँ मैं प्रेम बच्चों का,
माँ का अक्स नज़र उनमे आया।
बाबुल की सहजता उस आंगन में,आज वो अंकुर वृक्ष बन आया।।
ठंडक सी हो गई हिवडे में,
मिला जब गले लगा कर मां जाया।।
एक ही कमरे में कैसे हम सब इतने
प्रेम से रहते थे।
जो भी होता था दिल में,
हम सब खुल कर सब कुछ कहते थे।।
मां जाईयों संग बिताए लम्हों की बांध पोटली लाई हूं।
मां के वात्सलय के झोले को अपने बैग में भर के लाई हूं।।
कुछ कुंवारे एहसासों की अलख जलाने आई हूं।।
लड़ झगड़ कर पहले से हो जाते थे जहां भाई बहन, उस आंगन की माटी की सौंधी सौंधी महक नस नस में बसाने आई हूं।।
कैसे बताऊँ, वो पल बचपन के,लायी हूँ संजो कर ,हिवड़े में अपने।
होते हैं पूरे वहाँ, देखे थे जो सपने।।
माँ बाबुल का तन तो नही है,
लेकिन उनका मन तो वहीं है।।
निहारते होंगे जब ऊपर से,
दिल से दुआएँ देते होंगे।
उस आँगन की मिट्टी की महक
आज भी ख्वाबों में आया करती है,
सौंधी सौंधी सी कितनी प्यारी सी थी,अंतःकरण को पूर्णता भाव से भरती है।।
आज भी याद आता है माहौल वो
जब बचपन ने ली थी अंगड़ाई।
कितने मज़े से खेला करते थे सब
खो खो,पिटठू, छुपम छुपाई।।
माँ के खाने की महक आज भी
यादों में है तरोताज़ा,
वो बैंगन का भरता, वो सरसों का साग
वो बाजरे की खिचड़ी,
वो परांठा दो प्याजा।।
भूली बिसरी सी यादों को
फिर तरोताज़ा कर लायी हूँ।।
देख के अपना चमन अनोखा,
वो कितने खुश होते होंगे,
इन सब यादों को बांध पिटारे मे,
मैं पीहर से ससुराल में लायी हूँ।
कहो सखी तुम्हे कैसे दिखाऊं,संग मेरे क्या क्या सौगातें आयी है।।
वो तो नजर आएंगी मुझे ही,
मुझे ही मन से वो भाई हैं।।
मैं उस पलंग पर जाकर सोई,
जिस पर मेरी मां संग मेरे सोती थी।।
मैं उस दहलीज पर डाल बैठी कुर्सी पर,जहां सांझ ढले मां बैठा करती थी।।
मैं देखती रही अलपक वो अलमारी,जो खोल खोल वो बड़े चाव से दिखाती थी।
कितना भी करना पड़ जाता था उसे,शिकन माथे पर नहीं लाती थी।।
मैं यूं ही बैठी रही उस अपने कमरे में,जहां अब मेरी कोई चीज नहीं है।
कुछ संदूखें कुछ बैग पुराने हैं बेशक,पर यादों की चंद लंबी झड़ी है।।
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