Skip to main content

बहुत कुछ होती है चाय(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

 *चाय चाय ना हो कर 
बहुत कुछ है*
*औपचारिकता से अपनत्व तक का सफर है चाय*
*परवाह प्रेम मान सम्मान है चाय*
*संबंधों की सब्जी पर मधुरता का धनिया है चाय*
*दोस्ती के नाते पर प्रगाढ़ता की मोहर है चाय*
*मेहमान नवाजी है चाय,
स्वागत है चाय*
*चाय की चौकड़ी छप्पन भोगों पर भी भारी है*
*मात्र दस रुपए की चाय अनमोल सा काम करवाने की क्षमता रखती है*
*चाय का मोल नहीं मूल्यांकन महत्वपूर्ण है*
*बिसनेस डील है चाय स्ट्रेस हील है चाय*
*हास परिहास उल्लास के मंडप में
जिजीविषा का अनुष्ठान है चाय*
*रिश्तों की सूई में मीठे से बंधन का धागा है चाय*
*रसूख,सहजता और मेलजोल है चाय*
*विचार गोष्ठी की रूह है चाय*
*शिक्षक और संस्कार है चाय*
*एक मीठा सा गठबंधन है चाय*
*जुड़ाव है चाय माहौल है चाय*

 एक बार सौहार्द के खौलते हुए पानी में अपनत्व की इलायची और स्नेह की अदरक उबाल कर उल्लास की पत्ती डालें,मधुरता की शक्कर और परवाह का दूध डालकर चाय बना कर तो देखो ऐसा जाएगा कहीं नहीं मिलेगा।।

Comments

Popular posts from this blog

वही मित्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कह सकें हम जिनसे बातें दिल की, वही मित्र है। जो हमारे गुण और अवगुण दोनों से ही परिचित होते हैं, वही मित्र हैं। जहां औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं होती,वहां मित्र हैं।। जाति, धर्म, रंगभेद, प्रांत, शहर,देश,आयु,हर सरहद से जो पार खड़े हैं वही मित्र हैं।। *कुछ कर दरगुजर कुछ कर दरकिनार* यही होता है सच्ची मित्रता का आधार।। मान है मित्रता,और है मनुहार। स्नेह है मित्रता,और है सच्चा दुलार। नाता नहीं बेशक ये खून का, पर है मित्रता अपनेपन का सार।। छोटी छोटी बातों का मित्र कभी बुरा नहीं मानते। क्योंकि कैसा है मित्र उनका, ये बखूबी हैं जानते।। मित्रता जरूरी नहीं एक जैसे व्यक्तित्व के लोगों में ही हो, कान्हा और सुदामा की मित्रता इसका सटीक उदाहरण है। राम और सुग्रीव की मित्रता भी विचारणीय है।। हर भाव जिससे हम साझा कर सकें और मन यह ना सोचें कि यह बताने से मित्र क्या सोचेगा?? वही मित्र है।। बाज़ औकात, मित्र हमारे भविष्य के बारे में भी हम से बेहतर जान लेते हैं। सबसे पहली मित्र,सबसे प्यारी मित्र मां होती है,किसी भी सच्चे और गहरे नाते की पहली शर्त मित्र होना है।। मित्र मजाक ज़रूर करते हैं,परंतु कटाक

सकल पदार्थ हैं जग माहि, करमहीन नर पावत माहि।।,(thought by Sneh premchand)

सकल पदारथ हैं जग मांहि,कर्महीन नर पावत नाहि।। स--ब कुछ है इस जग में,कर्मों के चश्मे से कर लो दीदार। क--ल कभी नही आता जीवन में, आज अभी से कर्म करना करो स्वीकार। ल--गता सबको अच्छा इस जग में करना आराम है। प--र क्या मिलता है कर्महीनता से,अकर्मण्यता एक झूठा विश्राम है। दा--ता देना हमको ऐसी शक्ति, र--म जाए कर्म नस नस मे हमारी,हों हमको हिम्मत के दीदार। थ-कें न कभी,रुके न कभी,हो दाता के शुक्रगुजार। हैं--बुलंद हौंसले,फिर क्या डरना किसी भी आंधी से, ज--नम नही होता ज़िन्दगी में बार बार। ग--रिमा बनी रहती है कर्मठ लोगों की, मा--नासिक बल कर देता है उद्धार। हि--माल्य सी ताकत होती है कर्मठ लोगों में, क--भी हार के नहीं होते हैं दीदार। र--ब भी देता है साथ सदा उन लोगों का, म--रुधर में शीतल जल की आ जाती है फुहार। ही--न भावना नही रहती कर्मठ लोगों में, न--हीं असफलता के उन्हें होते दीदार। न--र,नारी लगते हैं सुंदर श्रम की चादर ओढ़े, र--हमत खुदा की सदैव उनको मिलती है उनको उपहार। पा--लेता है मंज़िल कर्म का राही, व--श में हो जाता है उसके संसार। त--प,तप सोना बनता है ज्यूँ कुंदन, ना--द कर्म के से गुंजित होता है मधुर व

बुआ भतीजी