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यूं हीं तो नहीं बनता गुलकंद( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा)

यूं हीं तू नहीं बनता गुलकंद,
 जाने कितने पुष्पों को देनी पड़ती
है कुर्बानी।
 जिंदगी और कुछ भी नहीं
 है,सच तेरी मेरी कहानी।।

 इस धरा पर कोई देवात्मा सी तूं, लगती थी तेरी
 हर बात और हरकत रूहानी।
 तेरे होने का एहसास ही है तेरी सबसे बड़ी निशानी।।

*केसर प्यारी* सी महकती रही तू प्रेम चमन में,
 तेरी ही तो परछाई हैं ये पावनी और सुहानी।।

 कुछ नहीं,बहुत कुछ खास रहा होगा तुझ में,
 यूं ही तो नहीं दुनिया होती किसी की इतनी दीवानी।।

 दिल कितना बड़ा था तेरा,
 सच में तू रही ताउम्र बड़ी ही दानी।।

 फर्श से अर्श तक का सफर तय करने वाली, कभी ना हुई तू अभिमानी।
 किस किस संज्ञा से नवाजे तुझे,
 रानी नहीं तू तो थी महारानी।।

 कितनी शीतल कितनी पावन पारदर्शी सी रही तू जैसे हो निर्मल पानी।
 उम्र भले ही छोटी रही हो तेरी 
पर थी बड़े बड़े बड़े कर्मों की जिंदगानी ।।

खुद मझधार में हो कर भी साहिल का पता बताने वाली,
 आने वाली पीढ़ियां भी नहीं भूलेंगे तेरी कहानी।।
 यूं ही तो नहीं बनता गुलकंद,
 जाने कितने पुष्पों को देनी पड़ती है कुर्बानी।।

*करुणा संयम मधुर्य संतोष कर्मठता जिजीविषा और अनुराग*
 इन सात भावों से रंगा था इंद्रधनुष जिसके जीवन का,
 रही सदा हो जैसी पुष्प में पराग।।
 कोई और नहीं वो मां जाई थी 
तपती रही जैसे चूल्हे में आग।।
पारस कहूं या कहूं तुझे कुंदन,
तूं जीवन का सबसे मधुर सा राग।।
चाशनी सी मीठी,कमल सी कोमल,
सरल,सागर करुणा का,बहती रही नदिया सा पानी।।
यूं हीं तो नहीं बनता गुलकंद,
जाने कितने पुष्पों को देनी पड़ती है कुर्बानी।।
तेरे जाने से एक बात आती है समझ मां जाई
*लाभ गगन का धरा की हानि*

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