पिता औलाद के पंखों को अनन्त उड़ान भरने के लिए असीम विस्तार लिए हुए गगन देता है।
ये औलाद पर करता है निर्भर वो कितना ऊंचा उड़ती है,गिर भी जाये,तो पिता फिर गोदी में ले लेता है।।
अपने से आगे बढ़ते हुए देख जो खुशी से फूला नहीं समाता,वो पिता कहलाता है।।
मां बच्चे की थाली में रोटी की चिंता करती है।
पिता चिंता करता है आजीवन बच्चे की थाली में भोजन रहे।।
पिता चाहता है उसका बच्चा दुनिया के किसी भी चक्रव्यूह में अभिमन्यु सा ना फंस जाए।।
पिता से बढ़ कर हितैषी कोई नहीं।।
संवाद भले ही कम होता हो पिता का बच्चों से, पर संबंध तो लम्हा लम्हा गहराता है।।
मेरी छोटी सी सोच को तो यही समझ में आता है।।
स्नेह प्रेमचंद
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