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**नहीं बनना**(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))




* नहीं बनना*

*नहीं बनना मुझे राधा शाम की*
जो रास तो संग मेरे रचाता हो।

पर सिंदूर मांग में,किसी और के,
बड़े प्रेम से सजाता हो।।।।।।।।।

*नहीं बनना मुझे सिया राम की*
जो सर्वज्ञ होकर भी अग्निपरीक्षा करवाता हो।

गर्भावस्था में भी अपनी अर्धांगिनी को,
धोखे से वन भिजवाता हो।।।।।

*नहीं बनना मुझे द्रौपदी पार्थ की*
जो ब्याह तो संग मेरे रचाता हो।

 पर  माता के कहने से
 निज भाइयों संग,
इस पावन नाते के हिस्से करवाता हो।।।

*नहीं बनना मुझे गौतम की कोई अहिल्या*
जो मुझे श्रापग्रस्त करवाता हो।

छल से मुझे तो,छला इन्द्र ने,
मुझे ही बरसों, राम प्रतीक्षा करवाता हो।।

*नहीं बनना मुझे पांचाली धर्मराज की*
जो जुए में, मुझे ही दांव पर लगाता हो।

भरी सभा में केश खींच कर लाया दुशाशन,
नारी अस्मिता को ही जैसे माटी में मिलाता हो।।

*नहीं बनना मुझे उर्मिला लक्ष्मण की*
जो मुझे विरह अग्नि में जलाता हो।

बिन मेरी इच्छा जाने वो भाई संग,
वन गमन की कसमें खाता हो।।

**नहीं बनना मुझे किसी अकबर की जोधा
 जो जबरन मुझसे ब्याह रचाता हो।

*जिसकी लाठी भैंस उसी की*
उक्ति सही सिद्ध करवाता हो।।।

*नहीं बनना मुझे यशोदा गौतम की*
मां बेटे को सोया छोड़ जो भरी रात में,सत्य की खोज में जाता हो।

पल भर के लिए भी नहीं सोचा मां बेटे का,
तोड़ा झट से,चाहे कितना ही गहरा नाता हो।।।।।

*नहीं बनना मुझे शकुंतला किसी दुष्यंत की*
जो जंगल में अकेले छोड़े जाता हो।

भुला देता हो जो हर प्रेम कहानी,
चाहे कोई कितनी ही याद दिलाता हो।।

*नहीं बनना मुझे राणा की मीरा*
जो सरे आम विष प्याला मुझे पिलाता हो।

मैं वन वन ढूंढूं निज आराध्य को,
वो मुझे मृत्यु फरमान सुनाता हो।।

*नहीं बनना मुझे देवदास की पारो*
जो प्रेम पींग तो निस दिन,
 मेरे संग  बढाता हो।

आया पर जब वक्त हाथ थामने का,
वो मुझ से ही नजरें चुराता हो।।

*नहीं बनना मुझे गांधारी धृत राष्ट्र की*
जो तन संग,मन नेत्र भी मूंदे जाता हो।

नहीं लगाया अंकुश, दुर्योधन की मनमानी पर,
हर उजियारा,तमस जो जीवन में लाता हो।।।

*नहीं बनना मुझे मंदोदरी रावण की*
जो परस्त्री हरण को जाता हो।
एक स्त्री की खातिर जो,
लंका दहन करवाता हो।।

*नहीं बनना मुझे अंबा अंबालिका*
युगों युगों तक कोई प्रतिशोध ज्वाला में जलाता हो।

नर नहीं पढ़ सका कभी नारी का अंतर्मन,
बस तन का प्रेमी ही बने जाता हो।।

*नहीं बनना मुझे कोई देवदासी*
जहां निस दिन मेरा दामन कुचला जाता हो।

जाने कितने ही अनकहे एहसासों को
बड़ी बेरहमी से मसला जाता हो।।।

मैं,मेरे बाबुल के आंगन की चिरैया
मां की ममता का साया हूं।
भाई बहनों संग बीता जो प्यारा सा बचपन,उसकी ही ठंडी सी छाया हूं।।

मैं जो हूं,जैसी हूं,वैसी ही मुझे रहने दो
बरसों से सिसक रहा है जो नारी इतिहास,आज तो खुल कर कहने दो।
मुझे आज तो खुल कर कहने दो।।।

मेरी इच्छाओं और मेरे सपनों को,
जिंदगी की चौखट पर दस्तक देने दो।।
उन्मुक्त गगन में मुझे परिंदों सी,
खुली उड़ान तो लेने दो,
खुली उड़ान तो लेने दो।।।।।।
       स्नेह प्रेमचंद




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