सपने बुनते बुनते
कब लम्हे उधडते गए,
पता ही नहीं चला।।
पल कब तबदील हुए
अर्धशतक में, पता ही नहीं चला।।
कब जिंदगी अनुभवों की पाठशाला बन गई,
पता ही नहीं चला।।
कब रिश्तों के ताने बाने सुलझाते सुलझाते खुद ही इनमे उलझती चली गई,
पता ही नहीं चला।।
जिंदगी के सफर में संग हमसफर के
कब बीत गए बरस 25, पता ही नहीं चला।।
कब छोटी छोटी सिया सरू बड़ी हो गई,पता ही नहीं चला
कब छोड़ आंगन रोहिल्लास का रावलस की केंद्र बिंदु बन गई,पता ही नहीं चला
कब मित्रों के इत्र से महकने लगा चरित्र तेरा पता ही नहीं चला
कब अधिकार बदल गए जिम्मेदारी में,अच्छे से पता चला।।
कब सपने बुनते बुनते लम्हे उधड़ते गए, पता ही नहीं चला।।
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