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मैं द्वापर की द्रौपदी(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*मैं द्वापर की द्रौपदी*
झांकती हूं 
जब धरा पर,
और देखती हूं 
 कलयुग में,
हो जाती हूं 
*स्तब्ध और परेशान*

*वही सोच
वही मानसिकता*
नारी के लिए नहीं सुरक्षित
आज भी ये विहंगम जहान।।
नारी तन भूगोल के ज्ञाता हैं सब,
नहीं आता समझ किसी को उसका मनोविज्ञान।।

लम्हे गुजरे,युग बदले
मगर कुछ भी तो नहीं बदला
*इंसान आज भी है
 उतना ही हैवान*

*वस्तु नहीं,व्यक्ति है नारी*
क्यों नहीं समझा आज तलक शैतान??
जननी है वो तो पूरी सृष्टि की,
मिले उसे तो  प्रेम,आदर और सम्मान
सौ बात की एक बात है
*नारी धरा पर ईश्वर का वरदान*
*होती है जहां नारी की पूजा,
देवता भी रमण वहां करते हैं*
ऐसी बातों की ओर तो पल भर भी नहीं देता इंसा ध्यान।
मैं द्वापर की द्रौपदी
हो जाती हूं स्तब्ध और परेशान।।
नित नित उल्लंघन हो रहा मर्यादा का,
शील,संयम,शर्म,मर्यादा तो भारतीय संस्कृति की पहचान।।

इतिहास दोहरा रहा है खुद को बार बार
मृत्यु दंड का भी कम है इसके लिए प्रावधान।।

 वक्त भी नहीं भुला पाता वे *स्याह से लम्हे*जब
*दुष्ट दुशासन केश खींच मुझे
भरी सभा में लाया था*
*दुर्योधन ने अपनी जंघा पर
मुझे बैठाने का  निर्लज्ज कथन दोहराया था*
 
*न फटी धरा, न डोला गगन*
जाने कैसे लम्हा ये आया था??
आज भी सिहर जाती हूं 
मैं ये सोच सोच कर,
क्यों वक्त ने मुझे इस घटनाचक्र का
 माध्यम बनाया था???

सिसक रहा इतिहास आज भी,
 रूदन ने बेबसी को गले लगाया था।।
*नारी अस्मिता*हो गई थी
 *रेजा रेजा*
*मरहम* कान्हा ने उस पल लगाया था।।
समर्पण सच में सच्चा था मेरा,
भगत के वश में होते हैं भगवान।

मुझे बचाने तो आगमन हुआ था माधव का,
मेरा चीर बढ़ाया,बचा लिया सम्मान।।
पर अब तो कोई कान्हा भी नजर नहीं आता,
नहीं आता नजर मुझे तो इस विकराल समस्या का कोई समाधान।।

तब भी चुप था
 ये अभिजात्य वर्ग,
आज भी खामोशी का
 पहना है परिधान।।
बना मौन अभिशाप 
था उस दिन,
बनी, कभी ना भूली 
जाने वाली दास्तान।।

*ऐसी खामोशी 
करती है कोलाहल*
सुनामी लाने का 
  पक्का सामान।।
जख्मी तन का तो
मिल जाता है मरहम
पर घायल दिल,
रिसता है पल पल
जैसे भीड़ में खुद को
लगता है अंजान।।
मैं द्वापर की द्रौपदी
झांकती हूं जब धरा पर,
और देखती हूं कलयुग में,
हूं स्तब्ध और परेशान।।।
सच में कुछ भी तो नहीं बदला,
इंसान आज भी है उतना ही हैवान।।

हुई शर्मसार कायनात थी उस दिन,
आज भी नजर आते हैं निशान।।
 शर्मिंदा है अतीत आज भी
**रूह जख्मी,चित रेगिस्तान**

*सभ्य समाज के,
 ये असभ्य अंदाज*
जैसे चमन उजाडे,
 खुद ही बागबान।।
संस्कारों पर विकार हो रहे हैं हावी,
*भोग विलास* के दलदल में है जहान।।
*मैं द्वापर की द्रौपदी*
हूं स्तब्ध और परेशान।।

कुछ भी तो नहीं बदला,
भेड़िए के भेस में है इंसान।।
नजर नहीं नजरिया बदले इस जग का,
शिक्षा भाल पर संस्कारों के हों अमिट निशान।।
अच्छी सोच,सत्कर्म और 
सुपरिणाम की बहे त्रिवेणी,
निर्भयता और मर्यादा का करें
 सब  दिल से आह्वान।।
जो हुआ संग मेरे,
 वो हो ना संग किसी के,
धरा पर स्वर्ग होगा,होगा फिर जनकल्याण।।


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