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प्रेम पैमाना(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*प्रेम* मापने का मुझे तो,
बस यही एक पैमाना
 समझ में आता है।।
भरी भीड़ हो जब
 इस दुनिया में,
सिर्फ वही 
नजरों को भाता है।।

*अलग परिवेश
 अलग परवरिश*
फिर भी दर्द, 
चैन उसके कांधे पर
ही पाता है।।
जग की
 इस आपाधापी में चित को
 सुकून उसके दामन 
में ही आता है।।

*धुआं धुआं सा हो जब मन*
संग उसके,
 सारा कोहरा छंट जाता है।।
यूं हीं तो नहीं कहा जाता,
ये एक नहीं *सात जन्मों*
 का ये गहरा नाता है।।

समय संग मौन से भी होने
लगता है संवाद,
धड़कन धड़कन संग लगती है
बतियाने
कुछ ईश्वर की ही होती होगी मर्जी
 जो भाने लगते हैं अलग ही आशियाने।।

मात्र तन का नहीं सच में ये रूह
का नाता है।
हिना सा होता है ये नाता,
जो धानी से श्यामल हो जाता है।।
किसी को जल्दी,किसी को देर से,
मगर समझ ज़रूर,ये आता है।।

यही प्रेम की है प्रकाष्ठा,
प्रीतम मुख्य,
सारा जग गौण बन जाता है।।

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