एक दिन स्वर्ग में मिल जाती हैं।
*तीनों कान्हा की प्रेम दीवानी*
कुछ ऐसे बतियाती हैं..
कहा रुकमणी ने दोनों से," कैसी हो तुम मेरी प्यारी बहनों??
कैसे बीत रही है जिंदगानी?
हम तीनों के प्रीतम तो *कान्हा*ही हैं,पर सुनाओ आज मुझे अपनी अपनी प्रेम कहानी।।
सबसे पहले मीरा बोली," मैं तो सांवरे के रंग रांची"
भाया ना मुझे उन बिन कोई दूजा।
बचपन से ही उन्हें माना पति,प्रीतम,रक्षक मैंने,
निसदिन मन से की उनकी है पूजा।।
उन्हें छोड़ किसी और की कल्पना नहीं हुई मुझे कभी स्वीकार।
* जहर का प्याला पी गई मैं तो*
सपनों में भी किए कान्हा के दीदार।।
सांस सांस बसते हैं वे चित में मेरे,
उन से शुरू, उन्हीं पर खत्म हो जाता है मेरा संसार
* नहीं राणा को मैंने माना
कभी भी अपना सच्चा भरतार*
करती थी, करती हूं,
करती रहूंगी सदा *श्याम* से सच्चा प्यार।।
*मेरो तो गिरधर गोपाल,
दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट,
मेरो पति सोई*
*मेरे तो इस पूरे जग में हैं
केवल गिरधर गोपाल*
मोर मुकुट सजता है
जिनके सिर पर,
*वही प्रीतम मेरे हैं बड़े कमाल*
*अधर सुधा रस मुरली राजति,
उर बैजन्ती माल
बसो मोरे नैनन में नंदलाल*
जिनके अधरों पर सजी बांसुरी अमृत रस घोले,
गले में बैजन्ती माला जैसे अपने मुख से बोले
*मोहिनी है मूरत जिनकी,
सांवली है सूरत जिनकी
और नयन हैं उनके बड़े विशाल*
*छोटे छोटे घुंघरू उनकी कमर पर लगते हैं बड़े मोहक, उनकी झंकार
बड़ी कमाल*
*निज आंसुओं से मैने कृष्ण प्रेम रूपी बेल को सींचा है,बड़ी हो गई बेल है अब ये,लगने लगे हैं आनंद फल*
*मेरा तो बीता कल भी कृष्ण थे,आज भी कृष्ण हैं और कृष्ण ही हैं मेरा आने वाला कल*
*हरो म्हारी पीर*
द्रौपदी की लाज बचाई थी जैसे,
*भगत प्रहलाद*का बचा लिया था शरीर।
हाथी को भी बचा लिया था,
हर लेते हो सबकी पीर
ऐसे ही हर लो कष्ट मेरे सारे,
मेरी पीड़ा कह रहे मेरी आंखों के नीर।।
केवल *पा लेना* ही प्रेम नहीं,
किसी को बिन पाए भी उसी का हो कर रहना प्रेम है।
जो समझाया ना जा सके,रूह को गहराइयों तक महसूस हो,वह प्रेम है।
वह सुंदर अहसास *प्रेम* है हर आहट में जिसके आने का विश्वाश शामिल हो
*शब्दों से परे*जो बंद आंखों से महसूस हो वह प्रेम है
कुछ ऐसा सा प्रेम है मेरा मेरे माधव से,हरो म्हारी मन की पीर
मीरा के सच्चे समर्पण को सुनकर रुकमणी अचंभित हो आई ।
*अति उच्च दर्जे का* मीरा प्रेम है
रुक्मणि को सच्चाई समझ में आई।।
मीरा ने तो बिन ब्याह के ही पा लिया गिरधर को,
सागर से भी गहरी इसके
प्रेम और भगति की गहराई।।
आज खुल गई आंखें मेरी,
मात्र मेरे ही नहीं हैं *कृष्ण कन्हाई*
स्नेह प्रेमचंद
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