*अपने ही घर
बेटी बन जाती है मेहमान*
सच में दौर बदल जाते हैं,
*बदल जाते हैं
उसी आंगन के बागबान*
जहां जिंदगी का परिचय
हुआ था अनुभूतियों से,
जिस आंगन में मात पिता हर संज्ञा,सर्वनाम विशेषण से
करवाते हैं पहचान
बदल जाते हैं तौर तरीके
उस आंगन के,
*नई पीढ़ी की सोच के नए आयाम**
छीन छीन कर खाने वाली,
सजे सजे से मेज पर देखती रहती है पकवान
सबके आने पर ही अब खाती है वो,
औपचारिकता के जेहन में पक्के निशान।।
*बैग उठाए अपने हाथ में
बिचल सी जाती है वो नादान*
किस कोने में रखूं इसे,
कहीं किसी को मेरे कारण न आए कोई व्यवधान।।
फिर हौले से पूछती है वो लाडो,
कहां रखूं मैं अपना बैग ये,
बता दो ना भाई और भाभी जान।।
मन तो लगता है उसी मां के कमरे में,
जहां हाथ पकड़ वो बड़े प्रेम से,
हौले से ले जाती थी।
खोल कपाट फिर निज अलमारी के,
वो सूट सिले हुए दिखाती थी।।
नाडा भी होता था उन सलवारों में,
मेरी मां मुझ से घंटों बतियाती थी।।
मैं मेरी मां के साए तले,
खुद मां हो कर भी बच्ची बन जाती थी।
वो मां के आंचल की सौंधी सौंधी महक मेरी सांस सांस में बस जाती थी।।
उस वात्सल्य सागर में मैं आकंठ डूब जाती थी
सारी थकान उतर जाती थी सासरे की,
सच में तरोताजा सा खुद को पाती थी।।
दहलीज पार कराती थी जब फिर मां मुझे,
गाड़ी में मेरी आंखें डब डब भर जाती थी।
एक गोला सा अटक जाता था मेरे कंठ में,
धुंधलाए मंजर से मां की धुंधली सी छवि नजर आती थी।।
वो खड़ी देखती रहती थी,
जब तक गाड़ी मोड़ से नहीं मुड़ जाती थी।।
*एक वो दौर था एक ये दौर है*
सच में समय ही होता है बलवान
*दूसरे कमरे में चली जाओ तुम*
*छोटा सा शब्द पर नश्तर समान*
हल्का सा बैग हो गया अति भारी,
*थके थके से कदम,मन रेगिस्तान*
सच में मां से अच्छा कुछ नहीं इस जग में,
मां कुदरत का अनमोल वरदान।।
हर मोड़ पर याद आती है ऐसे,
जैसे धानी मेंहदी के लाल लाल निशान।।
*बुआ की जगह ले लेती है भतीजी*
शायद यही बदलते दौर की पहचान
वो मां का कमरा वो मां की अलमारी
*खोजती निगाहें,सुलगते अरमान*
नहीं आते समझ ये ताने बाने नातों के
*नम नयन,लबों पर मुस्कान*
*भतीजी आगे,बुआ पीछे नेपथ्य के*
लम्हे की खता बन जाती है दास्तान
स्नेह प्रेमचंद
Comments
Post a Comment