*वो बचपन कितना प्यारा था*
जहाँ लड़ते ,झगड़ते,
फिर एक हो जाते
*वो सच में कितना न्यारा था*
*जब कुछ भी उलझन होती थी
तब माँ की होती गोदी थी*
*पिता का सर पर साया था
न लगता कोई पराया था*
*औपचारिकता की बड़ी बड़ी सी
चिन ली सबने दीवारें हैं*
"पार भी देखना चाहें अगर हम
बेगानी सी मीनारें है*
*तब तेरा मेरा न होता था
सब का सब कुछ होता था*
*जहान हमारा सारे का सारा था*
*वो बचपन कितना प्यारा था*
कोई द्वंद ना था कोई द्वेष ना था
कोई कष्ट ना था कोई क्लेश ना था
कोई अवसाद ना था कोई विषाद न था
जो दिल में होता वही जुबान पर था
मस्ती की होली होती थी
दीवाली पर खूब सफाई होती थी
मां ईंटों को रगड़ कर बोरी से लाल लाल बनाया करती थी
भैंसों की भी विविध रंगों की गलपट्टी बड़े धीरज से सिला करती थी।।
*वो खेल खिलोने दीवाली के*
*वो पापड़ स्वाली तीजो के*
"वो चोट मूसल की उखल में*
*वो कुंडी सोटे की चटनी*
*वो खद खद रधती कढ़ी*
*वो हारे का लाल लाल सा दूध*
*वो चने बिनोले हारे पर*
*वो कढ़ावनी की लस्सी*
,वो आलू गोभी की सब्जी*
*वो बैंगन का भरता वो तंदूर की रोटी*
सब लगता कितना न्यारा था
वो बचपन कितना प्यारा था
*माँ इंतज़ार करती थी
वो सब से बड़ा सहारा था*
*बाबुल के अंगना में
चिड़िया का बसेरा बड़ा दुलारा था*
**वो बचपन कितना प्यारा था**
*नही बोलता था जब कोई अपना*
चित्त में हलचल हो जाती थी,
*खामोशी करने लग जाती रही कोलाहल
भीड़ में भी तन्हाई तरनुम बजाती थी*
किसी न किसी छोटे से बहाने से
मिलन की आवाज़ आ जाती थी,
*अहम बड़े छोटे होते थे,
सहजता लंबी पींग बढ़ाती थी*
सबने मिलजुल कर बचपन अपना निखारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
अपनत्व के तरकश से सब
प्रेम के तीर चलाते थे,
रूठ जाता था गर कोई
झट से उसे मनाते थे,
नही मानता गर कोई,
उसे प्रलोभन से ललचाते थे,
लेकिन जीवन की मुख्य धारा में
कैसे न कैसे उसे ले आते थे,
दुर्भाव के तमस को बड़ी सहजता से
हर लेता जो, प्रेम भरा उजियारा था,
""वो बचपन कितनी प्यारा था†"
अभाव का प्रभाव होता था ज़रूर
जब मिल जाता कुछ होता बड़ा गरूर
अब सब मिल कर भी वो खुशी नही मिलती
अब हर कली पुष्प बन कर नही खिलती
छोटे छोटे से सपनो का होता सुंदर गलियारा था,
*वो बचपन कितना प्यारा था*
हसरत हैसियत से भले ही नजरें चुराती थी
पर जिजीविषा जिंदगी से, आलिंगनबद्ध हो जाती थी।।
चेतना का नित होता था सपंदन,
रूह खुद ही तृप्त हो जाती थी।।
अहम से वयम का बजा देते थे हम शंखनाद
छोटी छोटी बातों को नही रखते थे याद
माँ की चूल्हे की रोटी का स्वाद ही कितना न्यारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
पापा का होना ही बहुत कुछ होता था
एक पूरा युग ही उनमें समाया था
सब लगता था सरल,सहज,सुंदर
जैसे किसी सागर का शांत किनारा था।।
वो बचपन कितना प्यारा था।।
उन्मादी सा बचपन था,
नयनो में सुंदर सपने थे,
पापा का साया सिर पर था तो
सारे खिलौने अपने थे,
हर दिन होली होता था,
हर रात दीवाली होती थी
चंचलता दिन भर थक कर
यामिनी में चैन की निंदिया सोती थी,
हर उत्सव खास बन जाता था
जब भीड़ अपनो की होती थी,
अनुरागिनी उषा का दर्द आफताब
के सीने पर चैन से सोता था,
जब जी चाहे नन्हा चित्त हंस लेता
जब जी चाहे वो रोता था,
न इन बातों से कोई लेना देना होता था
न धन दौलत की हाय हाय थी
न कुछ अधिक पाना न ही कुछ मन खोता था,समय कब पंख लग कर उड़ गया
हमने न ही कुछ भी संवारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
सावन आने पर सब मिल कर लेते थे हिंडोले
कहीं उड़ती पतंग,कहीं मस्ती करते मलंग,
मनचाहे मनमर्ज़ी के शर्बत में शरारत की चीनी घोले।।
जब ऊर्जा और ऊष्मा मिल कर लेती थी अंगड़ाई,
जब साईकल से होती थी हमने दौड़ लगाई,
जब चिता हमारी मात पिता को होती थी,
तब कोई बेबसी घुटन के आंसू न रोती थी,
वो भी क्या दिन थे,जब हर मित्र बना हरकारा था,
वो बचपन कितना प्यारा था।।
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