[ एक कमरा उसका भी हो ]
एक कमरा उसका भी हो,
है वो भी इसी अंगना की कली प्यारी,
यहीं फला फूला था बचपन उसका,
अब कैसे मान लिया उसे न्यारी।।
अम्मा बाबुल के सपनो ने जब ली प्रेमभरी अँगड़ाई थी
तब ही तो लाडो बिटिया इस दुनिया मे आयी थी,
एक ही चमन के कली पुष्प तो,
होते हैं सगे बहन भाई,
फिर सब कुछ बेटों को सौंप मात पिता ने,
मानो अपनी ज़िम्मेदारी निभाई।।
मिले न गर ससुराल भला उसे,
हो जाएगी न वो दुखियारी,
एक कमरा तो उसका भी बनता है,
है मात पिता की वो हितकारी।।
कभी न भूले कोई कभी भी,
थी वो भी इसी अंगना की कली प्यारी।।
हर आहट पर मात पिता की,
रानी बिटिया दौड़ कर आती है,
कभी कुछ नही कहती मन का लाडो,
बस चैन मात पिता के आंचल में पाती है।।
एक दिन चुपचाप विदा होकर,
वो अंगना किसी और का ही सजाती है।
माना हो जाती है गृहस्वामिनी और
पूरे घर पर उसका ही आधिपत्य होता है,
पर पीहर से क्यों उखड़े जड़ उसकी पूरी ही,
ये मलाल हर बेटी के दिल मे होता है।
उसको भी चाहिए होते हैं कतरे बचपन के,
खोई हुई गुड़िया,कुछ अपने पुराने अहसासों की अलमारी,
एक कमरा उसका भी हो
थी वो भी किसी आंगन की कली प्यारी।।,
नही चाहिए उसे बराबर की हिस्सेदा
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