Skip to main content

लहर उठी विश्वास की(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

लहर उठी विश्वास की
 पिता खड़े जिस ओर*
 *लंबी काली रात की,
 पिता उजली सी भोर*

 *ऊपर से हैं सख्त दिखे,
पर चित मोम सा होय*
*हर पीड़ा छिपा हंसते रहे,
 चाहे भीतर भीतर रोय*

*ऊपर से गर्म,भीतर से नरम*
*पिता सम कोई जग में न होय*
*पर्वत से अडिग होते हैं पिता,
कभी धीरज न खोय*

*खुद से आगे बढ़े औलाद
प्रबल भाव जिया में होय*
*अधिकार रहते हैं मुस्कुराते
जब तलक पिता जगत में होय*

*जिम्मेदारी का ओढ़ दुशाला
पिता कभी करे ना शोर* 
*लहर उठी विश्वास की
पिता खड़े जिस ओर*

*लगन,मेहनत पर संग मुस्कान के,
पिता देते हैं सदा सिखाय*
*बातें बेशक लगें कड़वी उनकी
पर जो माने सुख पाय*
*अनुभूति में प्रथम पिता हैं*
*इजहार की बेशक न पकड़ी हो डोर*
*लहर उठी विश्वास की
पिता खड़े जिस ओर*

*अनबोला अनकहा है नाता
तात तुम्हारे साथ*
*दे दो तुम आशीष मुझे
मेरे सिर पर रख कर हाथ*
*तुम मोम से नरम हो पापा
बेशक जग कहे तुम्हे कठोर*
*लहर उठी विश्वास की
पिता खड़े जिस ओर*

*आस तुम्हीं,विश्वाश तुम्हीं
सच तुम हो ईश्वर समान*
*मंदिर,मस्जिद, गिरिजाघर में
 व्यर्थ भटक रहा इंसान*

*बहुत छोटा है शब्द कहना
तेरे लिए मेरे तात महान*

*ईश्वर का पर्याय होते हैं तात मात तो
सच में धरा पर होते वरदान*
*जग में उनके होते होते ही
दो उन्हें स्नेह,समय और सम्मान*

*देख लो चाहे सारी दुनिया*
*नहीं मिलेगा उनके जैसे कोई और*
*लहर उठी विश्वास की
पिता खड़े जिस ओर*

*जहां भर की दौलत से,
जो कभी खरीदा ना जाय*
*मात तात का प्रेम है वो,
जो बिन मोल मिल जाय*

*जितनी जल्दी जाग सके
उतनी जल्दी जाग*
*दोनों हाथों में समेट ले
ये मीठा अनुराग*
*मात तात का सानिध्य
सबसे प्यारा ठौर*
*लहर उठी विश्वास की
पिता खड़े जिस ओर*



Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

वही मित्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कह सकें हम जिनसे बातें दिल की, वही मित्र है। जो हमारे गुण और अवगुण दोनों से ही परिचित होते हैं, वही मित्र हैं। जहां औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं होती,वहां मित्र हैं।। जाति, धर्म, रंगभेद, प्रांत, शहर,देश,आयु,हर सरहद से जो पार खड़े हैं वही मित्र हैं।। *कुछ कर दरगुजर कुछ कर दरकिनार* यही होता है सच्ची मित्रता का आधार।। मान है मित्रता,और है मनुहार। स्नेह है मित्रता,और है सच्चा दुलार। नाता नहीं बेशक ये खून का, पर है मित्रता अपनेपन का सार।। छोटी छोटी बातों का मित्र कभी बुरा नहीं मानते। क्योंकि कैसा है मित्र उनका, ये बखूबी हैं जानते।। मित्रता जरूरी नहीं एक जैसे व्यक्तित्व के लोगों में ही हो, कान्हा और सुदामा की मित्रता इसका सटीक उदाहरण है। राम और सुग्रीव की मित्रता भी विचारणीय है।। हर भाव जिससे हम साझा कर सकें और मन यह ना सोचें कि यह बताने से मित्र क्या सोचेगा?? वही मित्र है।। बाज़ औकात, मित्र हमारे भविष्य के बारे में भी हम से बेहतर जान लेते हैं। सबसे पहली मित्र,सबसे प्यारी मित्र मां होती है,किसी भी सच्चे और गहरे नाते की पहली शर्त मित्र होना है।। मित्र मजाक ज़रूर करते हैं,परंतु कटाक...

बुआ भतीजी

सकल पदार्थ हैं जग माहि, करमहीन नर पावत माहि।।,(thought by Sneh premchand)

सकल पदारथ हैं जग मांहि,कर्महीन नर पावत नाहि।। स--ब कुछ है इस जग में,कर्मों के चश्मे से कर लो दीदार। क--ल कभी नही आता जीवन में, आज अभी से कर्म करना करो स्वीकार। ल--गता सबको अच्छा इस जग में करना आराम है। प--र क्या मिलता है कर्महीनता से,अकर्मण्यता एक झूठा विश्राम है। दा--ता देना हमको ऐसी शक्ति, र--म जाए कर्म नस नस मे हमारी,हों हमको हिम्मत के दीदार। थ-कें न कभी,रुके न कभी,हो दाता के शुक्रगुजार। हैं--बुलंद हौंसले,फिर क्या डरना किसी भी आंधी से, ज--नम नही होता ज़िन्दगी में बार बार। ग--रिमा बनी रहती है कर्मठ लोगों की, मा--नासिक बल कर देता है उद्धार। हि--माल्य सी ताकत होती है कर्मठ लोगों में, क--भी हार के नहीं होते हैं दीदार। र--ब भी देता है साथ सदा उन लोगों का, म--रुधर में शीतल जल की आ जाती है फुहार। ही--न भावना नही रहती कर्मठ लोगों में, न--हीं असफलता के उन्हें होते दीदार। न--र,नारी लगते हैं सुंदर श्रम की चादर ओढ़े, र--हमत खुदा की सदैव उनको मिलती है उनको उपहार। पा--लेता है मंज़िल कर्म का राही, व--श में हो जाता है उसके संसार। त--प,तप सोना बनता है ज्यूँ कुंदन, ना--द कर्म के से गुंजित होता है मधुर व...