*आज भी जब आते हैं सपने,
वो घर पुराना ही सपनो में आता है*
*जहां ज़िन्दगी का परिचय हुआ था अनुभूतियों से,
जहां बचपन सहज रूप में गुनगुनाता है*
*जहाँ माँ से खिलता आंगन था,
जहाँ बाबुल की सत्ता होती थी*
*जहां रहते थे हम सहजता से,
कोई चित चिंता नहीं होती थी*
*एक वो भी ज़माना था कितना प्यारा
जब लेमन और पापड़ की भी कीमत होती थी*
*वो मोटा मरुंडा,वो हलवाई के समोसे,वो सूखे धनिया की चटनी,वो पतीसा हर शै सच में
नायाब सी होती थी*
*वो तीज पर मां के पापड़ स्वाली गुलगुले जैसे कोई नेहमत सी होती थी*
*वो बाजरे की खिचड़ी,वो लहुसन की चटनी,वो सरसों का साग,वो जाड़े में चूल्हे की आग,वो कढ़ावनी का दूध बादामी सा,वो लस्सी वो आलू गोभी,वो भाड़ के चने,वो हौले सब जैसे कोई अनमोल सी चीज़ें होती थी*
जब पार्क में जाना भी उत्सव से कम न होता था।
आइसक्रीम मिल जाती तो वो शुभ महूर्त होता था।
जहाँ न कोई चित चिता थी,
हम बड़े चाव से रहते थे।
लड़ते भी थे,झगड़ते भी थे,
पर दिल की सब एक दूजे से कहते थे।
सरल,सहज ,स्वभाविक सा बचपन
एक कमरे में ही कितने लोग हम रहते थे।
वो किराए की साइकिल,वो गुलशन नंदा के नावल,वो फिल्मी कलियां सब कितनी मुश्किल से मयस्सर होता था।।
वो एल आई सी का ऑफिस,वो हड़ताल के नारे,वो ताई जी की गप्पे,वो खातन ताई का आना, वो अर्जन मिस्त्री की बहु,वो काला बाह्मण,वो फतते की आंख, वो रामरंग की दुकान, वो भैंसों और पापा को खोजना,वो भाई साहब भाभी का आना,यूं हीं घंटों गप्पे लगाना,वो इंदर संग पापा की ताशों की बाजी,वो सूखता तंबाखू, वो हुक्के की गुड़ गुड़,वो मां का सर पर जबर भ रोटा लाना,वो दीवाली की सफाई,वो भैंसों की भी रंग बिरंगी गलपट्टी बनाना,वो बोरी से ईंटों के फर्श चमकाना,वो भर भर बाल्टी मां का गेहूं तोलना, वो ब्रह्मा नंद की बड़ी सी टोपी बनाना,वो रतनबीर सरदार की नीलू,वो डॉक्टर जगदीश,वो दाल में लहुसन का छौंक लगाना सब स्मृतियों के झीने से झोले में आज भी कैद है।।
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