सूरजमुखी के फूल से
हो गए हैं रिश्ते
जहां स्वार्थ की धूप खिले,
वही तत्क्षण मुड़ जाते हैं
बरसों पुराना पल पल का साथ, चंद ही लम्हों में भुलाते हैं
माथा देख टीका निकलने वाले ये कैसे भूल जाते हैं अक्सर दौर बदल जाते हैं
आज जहां है बहार ए बसंत,
वहां पतझड़ भी तो आते हैं
नजर से नहीं नजरिए से आंकलन होने लगा है,नहीं पता था दृष्टिकोण इतनी जल्दी बदल जाते हैं।।
इतिहास दोहराया करता है अक्सर खुद को,फिर क्यों गलती दोहराते हैं
गलती का तो होता है प्रायश्चित,
गुनाह का होता है भुगतान यह सत्य क्यों भूले जाते हैं????
गया वक्त नहीं आता लौट कर,
लम्हे की खता बन जाती है ना भूली जाने वाली दास्तान क्यों समझ नहीं पाते हैं???
सूरजमुखी के फूल जैसे हो गए हैं नाते, जहां स्वार्थ की धूप खिले,
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