धड़धड़ाती हुई ट्रेन से तेरे वजूद के आगे थरथराते हुए पुल सा मेरा अस्तित्व शायद सही से तेरे बारे में ना कुछ कह पाता हो
भाव लिखने की मेरी कोशिश को शायद ये ज़माना समझ न पाता हो
नजर और नजरिया सबके जुदा जुदा हैं किसी को चांद महबूबा सा सुंदर और किसी
को चांद में भी दाग नजर आता हो
प्रेम मापने का एक ही पैमाना मुझे आता है समझ,
जब वो हो सामने कोई और नजर ना आता हो
जैसे तूं रही सदा
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