कभी कभी मेरे दिल में माँ का व्यक्तित्व उभर कर आता है और मैं हैरान हो जाती हूँ कि क्या क्या नहीं थी वो
कभी कभी मेरे दिल में माँ का व्यक्तित्व उभर कर आता है और मैं हैरान हो जाती हूँ कि क्या क्या नहीं थी वो
मैं अपने जीवन में माँ को हर जगह पाती हूँ
मुझे याद है जब मुझे टाडफाईड हुआ बारहवी क्लास मे , मरवा अस्पताल में थी और माँ मेरे सिरहाने थी लगातार । मुझे बहुत होश नहीं था पर वो बैठी दिखती थी
मुझे याद है चिकनपाकस की वो लंबी रातें , माँ सारी रात जागती थी कि मैं सो पाऊँ
मुझे याद है सिया के होने से पहले बहुत खुजली और बेचैनी होती थी माँ रात रात भर जागती थी जबकि खुद भी बीमार थी
मुझे याद है जब मैं और अंजू मैडीकल कालेज जाते थे तो मोड़ तक हमें देखती रहती थी
मुझे याद है ज्वार का भरौटा मेरा भी अपने सिर पर रख लेती थी छोटा सा
मुझे याद है जब बहुत बड़े ढेर कपड़ो को मैं माँ के साथ साबुन लगाती थी तो वो मुझे पहले ही उठा देती थी कि बाक़ी मैं कर लूँगी
मुझे याद है माँ खानाबनाकर आटो मे बैठकर मुझे और अमित को केवल खाना खिलाने होस्टल आ जाती थी
पता नहीं कितनी स्मृतियाँ है जो केवल हम ही जानते है .
माँ वो सब याद है
मां क़िला रोड थी
कैंप थी
माँ सूट थी
माँ कड़ी थी
साग थी
बाजरे की खिचड़ी थी
माँ ईंटों का फ़र्श थी
गेहूं थी
माँ बहुत बड़ा ज़िंदगी का तार थी
या यूँ कहूँ मेरे अस्तित्व का सार थी ।
माँ अंतहीन और बेमिसाल थी
हर दुख में हर दर्द में मेरी ढाल थी
लाड़ थी दुलार थी
ज़िंदादिली से सरोबार थीमाँ के पास कुछ अधिक नहीं था
पर कभी कुछ कम नहीं था
अन्नपूर्णा थी
भंडार थी
सनेहमयी उदार थी
सिलाई थी स्वेटर थी
हर काम में परफ़ेक्ट थी
सक्षम थी समर्थ थी
डरपोक थी पर हिम्मती थी
कैंसर से बचती रही
कैंसर को ही भीतर पालती रही झेलती रही
मगर कभी हारी नहीं थकी नहीं
जीवन के संघर्ष हंस कर सहजता से पार करती रही
हर बच्चे से हर बच्चे के बच्चे से प्यार
कैसा ख़ज़ाना था उसका बेशुमार
पवित्र और चरित्र वान
नायिका हमारे जीवन की सशक्त और गुणगान
अनपढ़ थी पर बुद्धि विवेक की खान
करूणामयी साधारण होते हुए भी असाधारण
धन्य हुई मैं ऐसी माँ पाकर
इच्छा यही कि काश एक प्रतिशत भी निभा पाऊँ
माँ बनकर माँ जैसा किरदार
मैं अपने जीवन में माँ को हर जगह पाती हूँ
मुझे याद है जब मुझे टाडफाईड हुआ बारहवी क्लास मे , मरवा अस्पताल में थी और माँ मेरे सिरहाने थी लगातार । मुझे बहुत होश नहीं था पर वो बैठी दिखती थी
मुझे याद है चिकनपाकस की वो लंबी रातें , माँ सारी रात जागती थी कि मैं सो पाऊँ
मुझे याद है सिया के होने से पहले बहुत खुजली और बेचैनी होती थी माँ रात रात भर जागती थी जबकि खुद भी बीमार थी
मुझे याद है जब मैं और अंजू मैडीकल कालेज जाते थे तो मोड़ तक हमें देखती रहती थी
मुझे याद है ज्वार का भरौटा मेरा भी अपने सिर पर रख लेती थी छोटा सा
मुझे याद है जब बहुत बड़े ढेर कपड़ो को मैं माँ के साथ साबुन लगाती थी तो वो मुझे पहले ही उठा देती थी कि बाक़ी मैं कर लूँगी
मुझे याद है माँ खानाबनाकर आटो मे बैठकर मुझे और अमित को केवल खाना खिलाने होस्टल आ जाती थी
पता नहीं कितनी स्मृतियाँ है जो केवल हम ही जानते है .
माँ वो सब याद है
मां क़िला रोड थी
कैंप थी
माँ सूट थी
माँ कड़ी थी
साग थी
बाजरे की खिचड़ी थी
माँ ईंटों का फ़र्श थी
गेहूं थी
माँ बहुत बड़ा ज़िंदगी का तार थी
या यूँ कहूँ मेरे अस्तित्व का सार थी ।
माँ अंतहीन और बेमिसाल थी
हर दुख में हर दर्द में मेरी ढाल थी
लाड़ थी दुलार थी
ज़िंदादिली से सरोबार थीमाँ के पास कुछ अधिक नहीं था
पर कभी कुछ कम नहीं था
अन्नपूर्णा थी
भंडार थी
सनेहमयी उदार थी
सिलाई थी स्वेटर थी
हर काम में परफ़ेक्ट थी
सक्षम थी समर्थ थी
डरपोक थी पर हिम्मती थी
कैंसर से बचती रही
कैंसर को ही भीतर पालती रही झेलती रही
मगर कभी हारी नहीं थकी नहीं
जीवन के संघर्ष हंस कर सहजता से पार करती रही
हर बच्चे से हर बच्चे के बच्चे से प्यार
कैसा ख़ज़ाना था उसका बेशुमार
पवित्र और चरित्र वान
नायिका हमारे जीवन की सशक्त और गुणगान
अनपढ़ थी पर बुद्धि विवेक की खान
करूणामयी साधारण होते हुए भी असाधारण
धन्य हुई मैं ऐसी माँ पाकर
इच्छा यही कि काश एक प्रतिशत भी निभा पाऊँ
माँ बनकर माँ जैसा किरदार
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