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जितनी बड़ी होती जाती हूं(( अनुभूति स्नेह प्रेमचंद द्वारा))


 चित में करुणा,जेहन में परवाह,दिमाग में उज्जवल भविष्य की सोच पल पल पल्ल्वित किए जाती है

जितनी बड़ी होती जाती हूं
उतनी ही मां अधिक समझ में आती है
उपलब्ध सीमित संसाधनों में भी जाने इतना हौंसला कहां से लाती है

मुस्कान के पीछे छिपे दर्द भी देख लेती हूं अब मैं,
बेशक मां कुछ भी नहीं बताती है

जाने कितनी ही झगड़ों पर मां
शांति तिलक लगाती है
हमारे हर ख्वाब को हकीकत में बदले जाती है

ना गिला ना शिकवा ना शिकायत कोई,
मां गंगोत्री से गंगा सी निश्चल निर्बाध बहे जाती है

लब कुछ नहीं कहते मां के
पर आंखें सब बयां कर जाती हैं

कितनी भी आ जाए परेशानी
अपनी खामोशी को कभी कोलाहल नहीं बनाती है

हमारे हर ख्वाब को हकीकत में बदले जाती है

चित में वात्सल्य,जेहन में सामंजस्य,दिमाग में दूरदर्शिता
मां ताउम्र लिए जाती है

जब सब पीछे हट जाते हैं
मां आगे बढ़ कर आती है
कैसा भी हो परिवेश कैसी भी 
परस्थिति
 मां वात्सल्य का कल कल झरना बहाती है

शक्ल देख हरारत पहचान
 लेती है मां
मुझे तो मां सच ईश्वर नजर आती है

धिकार भले ही ना ले मां
पर जिम्मेदारियां ओढ़ती जाती है

सब खाली खाली सा लगता है
जब घर घुसते ही मां नजर नहीं आती है
*मां पारस हम पत्थर*
मां पल पल हमे सोना बनाए जाती है
पर हम कैसे पत्थर हैं जो सही समय पर हमें मां की परेशानी नजर नहीं आती है????

जग से जा कर भी मां जेहन से कभी नहीं जाती है
शिक्षा भाल पर *संस्कार तिलक* मां ही तो बंधु लगाती है

*हम आईना हैं तो बंधु
 मां प्रतिबिंब बन जाती है*

*भूख लगे गर बच्चे को
मां झट से रोटी बन जाती है*

*प्यास लगे गर बच्चे को
मां सागर बन जाती है*

जीवन के इस अग्नि पथ को
मां ही सहज पथ बनाती है

अभिमन्यु से गर फंस जाएं 
कभी हम किसी चक्रव्यूह में,
मां हमे झट बाहर ले आती है

हमें पल भी अपनी आंखों से ओझल ना होने देने वाली मां
एक दिन जग से ओझल हो जाती है
ओझल भले ही हो जाए पर आचार,विचारों और वजूद में सदा के लिए अंकित हो जाती है

जितनी बड़ी होती जाती हूं
उतनी ही मां अधिक समझ में आती है

मां बन कर मां मैने है जाना
कितना मुश्किल है दर्द छिपा कर ऊपर से मुस्काना
नहीं बताती कभी हमें अपनी तकलीफें,
मां हमसे जाने क्या क्या छिपाती है

चित में भेद,जेहन में ममता,दिमाग में लक्ष्य को मंजिल से मिलाने की सोचे जाती है

मां बनने से पहले मां भी एक बिटिया थी,
यह सच्चाई नजर नहीं आती है
कभी जिद्द करते नहीं देखा मां को
मां तो हमारी ही जिद्द पूरी किए जाती है

मेरी सोच की सरहद जहां तक जाती है
उससे भी आगे तक मां मुझे तो तूं नज़र आती है

हम जर्रा मां तूं कायनात पूरी,
दुनिया तेरे आगे नतमस्तक हो जाती है
हम कतरा तूं सागर मां,
तेरी ममता की गहराई दिनोदिन बढ़ती जाती है
जितनी बड़ी होती जाती हूं
उतनी ही मां अधिक समझ में आती है
मां जिंदगी की संजीवनी बूटी,
पल पल रक्षा किए जाती है

Comments

  1. बहुत ही सुन्दर कृति बहुत ही सुन्दर बात को सहजता से समझाया 👍😊

    ReplyDelete
  2. ऐसा कौनसा अंश रहा है मां का जो आपकी किसी कृति में ना हो.. मां के एक एक अंश को आपने हर कृति में रमाया है तभी तो कहती हूं मां एक अच्छा और सच्चा अस्त्तित्व आपमें समाया है 🫶
    “जग से जा कर भी मां जेहन से कभी नहीं जाती है
    शिक्षा भाल पर संस्कार तिलक मां ही तो बंधु लगाती है”
    बहुत ही सुन्दर पंक्तियां

    ReplyDelete

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