Skip to main content

अच्छा नहीं लगता मुझे(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))


अच्छा नहीं लगता मुझे जब
 बेटियां अपने ही घर हो जाती हैं मेहमान

भाई से लड़ झगड़ कर खाने वाली
पहले आप पहले आप का करने लगती हैं गान

करती हैं संवाद बड़े संभल संभल कर,छोड़ सहजता औपचारिकता का पहन लेती हैं परिधान

अच्छा नहीं लगता मुझे जब 
बच्चे संवाद और संबोधन दोनों ही कर देते हैं कम 
अच्छा नहीं लगता मुझे जब
पीहर से जाते हुए मां को देख आंखें हो जाती हैं नम

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
पल पल साथ रहने वाले भाई बहन
एक दूजे से फोन कर कुशल क्षेम
पूछने से भी कतराते हैं

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
भाइयों को बहनों के घर दस्तक दिए बरसों बीत जाते हैं
क्यों मात पिता के जाने के बाद  भाई पिता सी प्रीत नहीं निभाते हैं???

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
बेटे दुख दर्द बांटने की जगह वसीयत बांटने आ जाते हैं
जीवन की सांझ में मात पिता संग रहने में उनके लफ्ज़ और लहजे दोनों ही बदल जाते हैं

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
एक ही छत तले मात पिता और बच्चे अलग अलग रसोई बनाते हैं
ऐसा तो हो ही जाता है दे कर कुतर्क वे सामान्य सा हो जाते हैं
मात पिता को तन्हा छोड़ उनके हिवड़े भी नहीं अकुलाते हैं
ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाने वाले मात तात के जीवन की सांझ में लड़खड़ाते कदम उन्हें नजर नहीं आते हैं

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
शहरों में वृद्धाश्रम नित नित भरे जाते हैं
जो पल भर भी हमें दूसरे कमरे में भी नहीं छोड़ते,
उन्हें बुढ़ापे में यूं आश्रम में कैसे छोड़े जाते हैं

अच्छा नहीं लगता मुझे जब 
सागर से वजूद वाले मात पिता किसी छोटी सी बावड़ी में तब्दील हुए नजर आते हैं
धड़धड़ाती ट्रेन से वजूद वाले मात पिता किसी सहमे हुए बच्चे से बन जाते हैं

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
 किसी को किसी के दर्द नजर नहीं आते हैं
अक्षर ज्ञान भले ही मिल जाता हो 
पर संस्कार कहीं सो से जाते हैं

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
हमें बोलना सिखाने वाले मात पिता
हमारे दो बोल सुनने के लिए तरस से जाते हैं

अच्छा नहीं लगता मुझे जब
बच्चे कहते हैं आपने हमारे लिए किया ही क्या है???
क्या उनको मात पिता के प्रयास नजर नहीं आते हैं
हमें हमसे भी अधिक चाहते हैं मात पिता ये सत्य भूले जाते हैं
संवाद,संबोधन से ही मधुर होते हैं संबंध क्यों परिवेश को परवरिश पर हावी किए जाते हैं
मुझे तो अच्छा नहीं लगता
क्या आपको लगता है?????
         स्नेह प्रेमचंद

Comments

  1. कितना खूब लिखा है आज के युवा मनुष्य की सच्चाई....को बतलाने वाली कविता.... हर पड़ाव को बहुत ही अच्छे से कविता में समाया है.....

    अच्छा नहीं लगता मुझे बेटियां अपने ही घर मेहमान बन जाती है....

    अच्छा नहीं लगता मुझे शहरों में वृद्ध आश्रम नित नित भरे जाते है...

    क्यूं संस्कार सो जाते है...

    बहुत ही हृदय को छूने वाली पंक्तियां 😊

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

वही मित्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कह सकें हम जिनसे बातें दिल की, वही मित्र है। जो हमारे गुण और अवगुण दोनों से ही परिचित होते हैं, वही मित्र हैं। जहां औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं होती,वहां मित्र हैं।। जाति, धर्म, रंगभेद, प्रांत, शहर,देश,आयु,हर सरहद से जो पार खड़े हैं वही मित्र हैं।। *कुछ कर दरगुजर कुछ कर दरकिनार* यही होता है सच्ची मित्रता का आधार।। मान है मित्रता,और है मनुहार। स्नेह है मित्रता,और है सच्चा दुलार। नाता नहीं बेशक ये खून का, पर है मित्रता अपनेपन का सार।। छोटी छोटी बातों का मित्र कभी बुरा नहीं मानते। क्योंकि कैसा है मित्र उनका, ये बखूबी हैं जानते।। मित्रता जरूरी नहीं एक जैसे व्यक्तित्व के लोगों में ही हो, कान्हा और सुदामा की मित्रता इसका सटीक उदाहरण है। राम और सुग्रीव की मित्रता भी विचारणीय है।। हर भाव जिससे हम साझा कर सकें और मन यह ना सोचें कि यह बताने से मित्र क्या सोचेगा?? वही मित्र है।। बाज़ औकात, मित्र हमारे भविष्य के बारे में भी हम से बेहतर जान लेते हैं। सबसे पहली मित्र,सबसे प्यारी मित्र मां होती है,किसी भी सच्चे और गहरे नाते की पहली शर्त मित्र होना है।। मित्र मजाक ज़रूर करते हैं,परंतु कटाक...

सकल पदार्थ हैं जग माहि, करमहीन नर पावत माहि।।,(thought by Sneh premchand)

सकल पदारथ हैं जग मांहि,कर्महीन नर पावत नाहि।। स--ब कुछ है इस जग में,कर्मों के चश्मे से कर लो दीदार। क--ल कभी नही आता जीवन में, आज अभी से कर्म करना करो स्वीकार। ल--गता सबको अच्छा इस जग में करना आराम है। प--र क्या मिलता है कर्महीनता से,अकर्मण्यता एक झूठा विश्राम है। दा--ता देना हमको ऐसी शक्ति, र--म जाए कर्म नस नस मे हमारी,हों हमको हिम्मत के दीदार। थ-कें न कभी,रुके न कभी,हो दाता के शुक्रगुजार। हैं--बुलंद हौंसले,फिर क्या डरना किसी भी आंधी से, ज--नम नही होता ज़िन्दगी में बार बार। ग--रिमा बनी रहती है कर्मठ लोगों की, मा--नासिक बल कर देता है उद्धार। हि--माल्य सी ताकत होती है कर्मठ लोगों में, क--भी हार के नहीं होते हैं दीदार। र--ब भी देता है साथ सदा उन लोगों का, म--रुधर में शीतल जल की आ जाती है फुहार। ही--न भावना नही रहती कर्मठ लोगों में, न--हीं असफलता के उन्हें होते दीदार। न--र,नारी लगते हैं सुंदर श्रम की चादर ओढ़े, र--हमत खुदा की सदैव उनको मिलती है उनको उपहार। पा--लेता है मंज़िल कर्म का राही, व--श में हो जाता है उसके संसार। त--प,तप सोना बनता है ज्यूँ कुंदन, ना--द कर्म के से गुंजित होता है मधुर व...

बुआ भतीजी