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बेचैनी और सुकून

बेचैनी और सुकून
एक दिन बेचैनी ने कहा सुकून से
हो शांत से गहरे सागर तुम,
थाह तुम्हारी किसी ने न पाई।
मैं नदिया के भँवर के जैसी चंचल
कोई शांत,सीधी, उलझी सी राह
न दी मुझे कभी दिखाई।

कहा सुकून ने बेचैनी से,
होता है जहाँ मोह,काम,क्रोध
और भौतिक सुखों को पाने की तीव्र लालसाएँ।
तुम दौड़ी सी आ जाती हो वहाँ पर,
ठहराव नही दिखाई देती तुम्हे राहें।।

नही ज़रूरी मैं रहूं महलों में,
मुझे तो फुटपाथ भी आ जाते हैं रास।
पर तुम तो कहीं भी नही टिक पाती,
पूरे ब्रह्मांड में तुम्हारा नही है वास।।

जिस दिन तुम्हे जीवन की सही सोच
समझ मे आएगी।
विलय हो जाओगी तुम उस दिन मुझमे,
बेचैनी सुकून बन जाएगी।।

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