बोल सखी री!
राखी पर तूँ क्या पीहर से लाई है?
आज बता दे बेबाक सहेली,
क्यों कहने से हिच किचाई है??
जो लाई हूँ वो इस तन की आंखों से नही दिखेगा,
कच्चे धागे पर पक्के बंधन के पर्व का पुष्प इस हिवड़े में ताउम्र खिलेगा
मैं सहजता के पौधे से उमंग उल्लास के पुष्प लाई हूं
मात पिता ने जिस प्रेम अंकुर को लगा कर जग से लेली थी विदाई,
उसे सींच कर स्नेह जल और प्रेम खाद से,
आज कितनी ही कली हैं पुष्प बन आई।।
मैं अपने झीने झोले में मज़बूत से बन्धन के पल चुरा कर लाई हूँ,
मैं मस्तक पर विश्वास की रोली,अपनत्व के चावल खिला कर आई हूं,
मैं मीठे से कर के शगुन सबके जीवन मे मिठास भर आईं हूँ,
मैं भतीजे भतीजी में भाई बहन के हुनियारे महसूस कर आई हूं
मैं माँ के अधरों की मुस्कान भाभी बहनों के लबों पर देख कर आई हूँ,
मैं मां की परंपरा को सहेज फिर घर वापस आई हूं
यही लेने गई थी मैं,
ये झोले भर भर लाई हूँ,
मैं लंबी उम्र और खुशहाल से जीवन की सबको दुआ दे आई हूँ,
हर बार की तरह इस राखी पर भी,
मैं इन सब से मालामाल हो आई हूँ,
मात पिता की सौंधी सी महक,
दिल मे बसा कर लाई हूँ,
भाई बहनों में गई थी देखने अक्स मात पिता का,
यादों के आईने से वक़्त की धूल हटा कर आई हूं,
ऐसे तोहफों को कैसे दिखलाऊँ,
ऐसी कोई ऐनक नही बन पाई है,
तूँ पढ़ना जानती हो गर मेरे दिल की पाती, तो पढ़ ले,मेरा तो धुंधला हुआ मंज़र,
मुझे शब्दलिपि नही बस भावलिपि ही नज़र आई है।।
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