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मां का स्नेह मां का प्रेम अतुलनीय

माँ के प्यार को शब्दों में व्यक्त करना बहुत मुश्किल है!
दुनिया में माँ से ज़्यादा प्यार कोई और कर ही नहीं सकता

जीवन की राह में आने वाली सभी बाधाओं को हटाती है माँ 
माँ हमारे बारे में सब कुछ जानती है
पर सब कुछ हमेशा ही बताती नहीं मां … 

बिना कुछ कहे ही क्या चाहिए.. माँ समझ जाती है 
यथासंभव हर कोशिश कर के मुस्कान लबों पर लाती है

हमें खुश करते करते भले ही खुद उपेक्षित हो जाती है
हमारे शौक और सपनों के आगे अपनी जरूरतें भी जमीदोज किए जाती है

माँ बिना थके हम सब बच्चों की इच्छा पूरी करना चाहती थी 
पढ़ा लिखा कर एक अच्छा इंसान बनाना चाहती थी और हमेशा ख़ुश देखना चाहती थी हमें .. 
माँ से ही वजूद हैं हम सब भाई बहनों का .. 
कुछ भी कहना कम है मां के लिए
भाव कम और अल्फाज छोटे पड जाते हैं
अपने पर्याय मां को ईश्वर हमारे  लिए धरा पर लाते हैं

चूल्हे की
जलती रोटी सी
तेज आँच में जलती माँ !

सिर पर
रखे हुए पूरा घर
अपनी –
भूख -प्यास से ऊपर ,
घर को
नया जन्म देने में
धीरे -धीरे गलती माँ !

सब दुनिया से रूठ रपटकर
जब मैं बेमन से सो जाती 
हौले से वो चादर खींचे
अपने सीने मुझे लगाती
खूब मनाती रात भर 
फिर खाना खिलाकर सुलाती माँ 

जब भी बुख़ार आया हमें 
या हुआ चिकनपाक्स.. 
रात रात भर जगती 
और आँचल से 
बदन को सहलाती माँ 

माँ तुम्हारा स्नेहपूर्ण स्पर्श
अब भी सहलाता है मेरे माथे को
तुम्हारी करुणा से भरी आँखें
अब भी झुकती हैं मेरे चेहरे पर

अब भी कानों में पड़ता है
तुम्हारा स्वर
कितना थक गई हो बेटी
और तुम्हारे निर्बल हाथों को मैं
महसूस करती हूँ अपनी पीठ पर
माँ
क्या तुम अब सचमुच नहीं हो

मेरी आस्था, मेरा विश्वास, मेरी आशा
सब यह कहते हैं कि माँ तुम हौ
मेरी आँखों के उजाले में
मेरे कंठ की माधुर्यपूर्ण वाणी में
चूल्हे की गुनगुनी भोर में
दरवाज़े की सांकल में
मेरे मन मंदिर में तुम ही हो .. 

मेरे चारों ओर घूमती ये धरती 
तुम्हारा ही तो विस्तार है माँ 

सौ बात की एक बात है
जीवन का सच्चा सार है मां

बहुत याद आती है माँ
जब भी होती हूं मैं परेशान

याद आता है…. मेरे और अंजू के सफल होने पर
तेरा दौड़ कर खुशी से गले लगाना ।
तेरी ख़ुशी का ठिकाना न होना 

तुम्हारा स्नेह भरा प्रेम बहुत याद आता है ..
याद आता है तेरा वो तपती दोपहर में सबके लिए तंदूर पर रोटी लगाना
वो बैंगन का भरता वो माखन वो लासी पड़ोसी की भी रोटी पकाना
एक प्रश्न जो सोया था तब अब बार बार कौंधता है चित में मेरे
हमें क्यों अहसास नहीं हुआ उस वक्त,मां सच कितने ठंडे साए थे तेरे
वो कैसे इतना सब कुछ कर लेती थी
उपलब्ध सीमित संसाधनों में वो हमें कैसे इतनी सुविधा देती थी
किसी भी अभाव का प्रभाव ना था मां की कर्मठता पर,अपने कर्म के बलबूते वह भाग्य को चकमा देती थी
आगे आने वाली पीढ़ियां शायद ही मां तेरे अस्तित्व के इतने विहंगम विस्तार का यकीन कर पाएंगी
कहानी सी लगेगी उन्हें यह सत्य गाथा,पर मेरी लेखनी उन्हें मां का सच्चा प्रतिबिंब  दिखाएगी

आज 8 बरस हो गए हैं मां तुझ को हम से बिछड़े हुए
पर जा कर भी कहीं गई नहीं तूं,
तेरे विचार हैं हम सब के भीतर बिखरे हुए

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