प्रतियोगिता हेतु कविता _
प्रतियोगिता का नाम_मेरी मां
ग्रुप संख्या _2
परिचय
नाम_स्नेह प्रेमचन्द
स्थान _हिसार (हरियाणा)
शीर्षक _*जितनी बड़ी होती जाती हूं
मां उतनी ही अधिक समझ में आती है*
चित में करुणा,जेहन में परवाह
दिमाग में उज्ज्वल भविष्य की सोच
पल पल पल्लवित किए जाती है
उपलब्ध सीमित संसाधनों में भी
जाने क्या क्या कर जाती है
मुस्कान के पीछे छिपे दर्द देख लेती हूं मैं
बेशक मां अपने लबों से कुछ नहीं बताती है
जाने कितने ही झगड़ों पर मां
*शांति तिलक*लगाती है
हमारे हर ख्वाब को सपने में
बदले जाती है
ना गिला,ना शिकवा,
ना शिकायत कोई
मां गंगोत्री से निकली गंगा सी निश्चल निर्बाध बहे जाती है
चित में वात्सल्य,जेहन में सामंजस्य,
दिमाग में दूरदर्शिता ताउम्र लिए जाती है
कितनी भी आ जाए परेशानी,
अपनी खामोशी को कभी कोलाहल नहीं बनाती है
जब सब पीछे हट जाते हैं
मां आगे बढ़ कर आती है
कैसा भी हो परिवेश,परिस्थिति
वात्सल्य का कल कल झरना बहाती है
शक्ल देख हरारत पहचान लेती है मां
मुझे तो सच में ईश्वर के समकक्ष नजर आती है
अधिकार भले ही ना ले मां,
जिम्मेदारियां पल पल ओढ़े जाती है
मां पारस हम पत्थर हैं
मां लम्हा लम्हा हमें सोना बनाए जाती है
पर यह कैसी विचित्र विडंबना है
हमें मां की परेशानी नजर नहीं आती है
जग से जा कर भी मां जेहन से कभी नहीं जाती है
हमारे आचार,विचार,कार्यशैली हर ओर मां नजर आती है
शिक्षा भाल पर *संस्कार तिलक*
मां ही तो बंधु लगाती है
हम आईना हैं तो मां झट से अक्स बन जाती है
भूख लगे गर बच्चे को मां तत्क्षण रोटी बन जाती है
जीवन के इस अग्नि पथ को मां ही सहज पथ बनाती है
अभिमन्यु से गर फंस जाएं किसी चक्रव्यूह में,
मां हमे झट बाहर ले आती है
जग से भले ही ओझल हो जाए मां,
आचार,विचारों,वजूद में सदा के लिए अंकित हो जाती है
जितनी बड़ी होती जाती हूं
मां उतनी ही अधिक समझ में आती है
मां जिंदगी की संजीवनी बूटी,
पल पल रक्षा किए जाती है
हम ज़र्रा मां तू कायनात है पूरी
दुनिया तेरे आगे नतमस्तक हो जाती है
हम कतरा तूं सागर है मां
तेरी ममता की गहराई दिनोदिन बढ़ती जाती है
हमें बोलना सिखाने वाली मां
जीवन के एक मोड पर हम से संवाद और संबोधन के लिए तरस जाती है
हमारे हर क्यों,जब,कैसे,कितने का उसी पल बन जाती है उत्तर
मां मुझे तो जन्नत नजर आती है
जितनी बड़ी होती जाती हूं
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