क्यों नज़र हमे नही आता,कोई तो गुब्बारों में साँसे डाल कर है बेचने को मजबूर,किसी के पास है इतना,वो है इस इतना होने पर मगरूर,क्यों हमे नज़र नही आता,होनी चाहिए कलम और किताब जिन हाथों में,वो सर्दियों की ठिठुरन में ढीठ बर्तनों की कालिख उतारने में अपना बचपन खो देते हैं,फिर कैसे उम्मीद करें इनसे एक अच्छा इंसान बनने की,गहरी आर्थिक विषमता के बीज हम खुद बो देते हैं,क्यों हमे नज़र नही आता,कहीं दावतों में हज़ारों की थाली छपन भोगों से परोसी जाती है,कहीं होती है लड़ाई आधी रोटी के टुकड़े के पीछे,जैसे भूख ज़िन्दगी को चिढ़ाती है,क्यों हमे ये आर्थिक विषमता की गहरी सी खाई,आज तलक भी नही देती दिखाई,ज़रा सोचिए,हमे क्यों ये नज़र नही आता?