घर के गीले चूल्हे में,ईंधन सी जलती रहती है माँ,जाने क्या क्या सहती है,पर कभी कुछ भी नही कहती है माँ,घर की चक्की के दो पाटों में,गेहूं सी पिसती है माँ,समझौते का तिलक लगाती, उफ़ तक भी नही करती है माँ,कोल्हू के बैल की तरह करती रहती है कर्म वो,कैसे कभी नही थकती माँ,धरा से धीरज वाली,अनंत गगन से सपनों वाली,कर्म की सदा ढपली बजाती, हमे हमसे अधिक जानती, मेहनत की कुदाली से अपने आशियाने को महकाती, जग में और कहीं नही मिलती माँ,,सच है न?????