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घर के गीले चूल्हे में

घर के गीले चूल्हे में,ईंधन सी जलती रहती है माँ,जाने क्या क्या सहती है,पर कभी कुछ भी नही कहती है माँ,घर की चक्की के दो पाटों में,गेहूं सी पिसती है माँ,समझौते का तिलक लगाती, उफ़ तक भी नही करती है माँ,कोल्हू के बैल की तरह करती रहती है कर्म वो,कैसे कभी नही थकती माँ,धरा से धीरज वाली,अनंत गगन से सपनों वाली,कर्म की सदा ढपली बजाती, मेहनत की कुदाली से अपने आशियाने को महकाती, जग में और कहीं नही मिलती माँ,,सच है न

घर के गीले चूल्हे में(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

घर के गीले चूल्हे में,ईंधन सी जलती रहती है माँ,रिश्तों की उदडन को हर पल सिलती रहती है माँ,जाने क्या क्या सहती रहती है,पर लबों से कुछ नही कहती है माँ,घर के जाने कितने झगड़ों को समझौते का तिलक लगाती है माँ,कुटिया हो या हो चाहे महल,कोना कोना सदा सजाती है माँ, ज्यादा तो मुझे नही पता,पर सब कुछ सहज बनाती है माँ,प्रेम वृक्ष पर ममता के फल अपनी मेहनत से उगाती है माँ,खुद गीले में रह कर औलाद को सदा सूखे में सुलाती है माँ,कितना भी कर ले कैसे ही कोशिश,साँझ होते ही याद आती है माँ