स्वेद बहाने से ये रक्त बहाने की, कैसे,कब,क्यों आ गई बारी?? ये तो ख्वाबों में भी सोचा न था, क्यों ज़िन्दगी मौत से है हारी?? समझ नही आता,क्या यही है, सिला ए मेहनत और ईमानदारी??? गगनचुम्बी इमारतें बनाने वालों की, फुटपाथ पर मीलों चलने की आ गई बारी।। बेबसी हो रही है बेबस, घुटन का घुटना है जारी। ज़रूरतें दम तोड़ने लगी हैं, जख्मी हो रही लाचारी।। आह घुल रही है फ़िज़ां में, शोला बन रहा चिंगारी।। सूखे अधर,पाँव में छाले , गोदी में बच्चे,सिर पर सामान। न कोई घर,न रैन बसेरा, नीचे धरा ऊपर आसमान।। ये कैसी वक़्त ने अजीब गरीब सी तस्वीर उभारी??? तन घायल,मन आहत, वक़्त ने क्यों गरीब को मार है मारी?? स्वेद बहाने से ये रक्त बहाने की, कैसे,कब,क्यों आ गई बारी??? कभी खेतों में खलिहानों में, कभी होटलों में कभी कारखानों में, कभी तपती धूप के भीष्ण अंगारों पर, कभी निष्ठुर जाड़े की कम्पन में, कभी बाढ़ में कभी तूफानों में, कभी भीड़ में कभी वीरानों में, कभी कोयले की काली खादानों में, कभी ढाबों में कभी कारखानों में, कभी बोझा ढोते, कभी ठेला खींचते, कभी बंगलों को चमकाने में, कभी डाँट कभी द...