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चहुं ओर तेरा डंका बाजे(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

चहुं ओर तेरा डंका बाजे, चहुं ओर तेरा परचम लहराए।। हर वांछित मकाम हो हासिल तुझको, मुस्कान,सदा तेरे लब पर आए।। सफलता के भाल पर लगे  तिलक संस्कारों का, अहंकार कभी चित में ना आए।। आएं दर्द उधारे लेने तुझ को, स्वार्थ स्वरूप तुझे कभी न भाए।। चहुं ओर तेरा डंका बाजे, चहुं ओर तेरा परचम लहराए।। जाने किन किन जतनो से पालते पोसते हैं हमें वालदेन। उनके अथक प्रयासों से अवगत हो चित हमारा,  और हो अवगत हमारा ब्रेन।। वो हमारी खुशी से ही खुश हो जाते हैं, चाहते हैं बस इतना,कोई कांटा हमें न चुभ जाए। उनका तो संसार ही हम हैं, पर ध्यान रहे इतना,हमारे संसार में कहीं वे खो न जाएं।। मात पिता सा जिंदगी में कभी कोई नहीं मिलता पुर्सान ए हाल। बस बाज़ औकात हमे नहीं मिलती है वो नजर और नजरिया, जो जान सकें और देख सकें, कैसे वो पालते हैं हमें,कैसे करते हैं हमारी देखभाल।। मातृ और पितृ ऋण से कभी  उऋण नहीं हो सकते हम, काश ये सबकी समझ में आए।। चहुं ओर तेरा डंका बाजे, चहुं ओर तेरा परचम लहराए।। बहती नदिया सी बहती जाना, फिर बन जाना एक दिन अनंत,असीम गहरा सा सागर। गगन में उड़ कर भी रहना धरा पर, बदल न जाना...