घर रहें,महफूज़ रहें,हमारे लिए ही जान जोखिम में डाल रहे चिकित्सक सारे। धरा शुक्रगुज़ार है इनकी इतनी, जैसे अनन्त गगन में हों असंख्य तारे।। भगवान ही तो हैं ये सब, पहने हुए हैं श्वेत लिबास। आती है जब कोई घड़ी कष्ट की, होता इनकी महता का आभास।। भगवान को तो देखा नहीं आज तक, पर ईश्वरीय रूप है इन सब के पास।। बिन सोये सतत करते कितने अथक प्रयास। यूँ ही तो नही कहा जाता इन्हें सबसे खास।। इन्ही के बलबूते तो सम्भव है, सबका साथ सबका विकास।। इस वैश्विक महामारी के समर में ये पार्थ से योद्धा हैं हमारे। कैसे जीते ये महाभारत,बता रहे घर रहने को कृष्ण हमारे।। काश समझ आ जाए सबको ये साँझ सकारे। न कहीं आना,न कहीं जाना, रहना है बस अपने घर द्वारे।। शौक से ज़रूरतें सदा ही प्राथमिक हैं, करबद्ध सबके स्वस्थ रहने की कर रहे अरदास।। सब स्वस्थ हों,सब निर्भय हों,जिजीविषा का न कभी ह्रास।। इन्ही भावों की अलख जले बस साँझ सकारे। घर रहें,महफूज़ रहें, धरा पर ईश्वर ही हैं चिकित्सक सारे।। स्नेहप्रेमचंद