एक तेरे न होने से मां, डसती है अजब सी तन्हाई। कौन सी ऐसी सांझ और भोर है, जब तूं न हो मुझे याद आई।। चेतना के हैंडल से तूने जिजीविषा की चक्की बखूबी चलाई।। कर्म की भट्ठी में तूने झोंका सफलता का ईंधन,यही थी मां तेरी सच्ची कमाई।। सीमित उपलब्ध संसाधनों में भी तूने, कभी भी मां दी न दुहाई।। हैरत को भी होती है हैरत,किस माटी की खुदा ने तूं थी बनाई।। एक तेरे होने से मां, मरुधर में भी चलती थी पुरवाई।। तूं कितनी अच्छी थी,तूं कितनी प्यारी थी, तेरे जाने के बाद ये बात समझ में आई।। कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है मां कभी नहीं हो सकती पराई।। स्नेह प्रेमचंद