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गुजरे वक्त से(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

गुजरे वक्त से जब वक्त की  धूल हटाती हूं तेरा अक्स आज भी  दमकता हुआ सा पाती हूं कभी स्टोर के दरवाजे के पीछे हाथ में गिलासी लिए दूध का इंतजार करते हुए पाती हूं कभी मां का थामे हुए दामन उसके अंक में सिमटा हुआ तुझे पाती हूं सबसे छोटी थी क्रम में, पर कर्मों में सबसे बड़ा ही पाती हूं उपदेशन कहती थी मैं तुझ को, मधुर वाणी में जैसे सबको समझाते हुए सा पाती हूं कभी मॉडल स्कूल नीली स्कर्ट और सफेद शर्ट में जाते हुए पाती हूं दो चोटी वाली सहेली शालिनी की बातें सुनाती हुए पाती हूं कभी सफेद कोट और satetho स्कोप लिए हाथों में  कितने आत्म विश्वाश से दमकता हुआ चेहरा आंखों के सामने पाती हूं कभी UPSC की तैयारी करते, और IFS में चयनित हुए सबका गौरव बढ़ाने वाली को देख गौरवांवित हो जाती हूं कभी दुल्हन बनी देख तुझे भीतर से खुश हो जाती हूं प्रेम न जाने जाति मजहब उच्चारण नहीं आचरण में  तुझे लाते हुए पाती हूं कभी तुलसी कूटते,कभी व्रत का खाना बनाते हुए देख हैरान सी हो जाती हूं कभी देश में कभी परदेश में जाने कितनी ही बार क्या क्या पैक करते हुए देख चौंक सी जाती हूं दो बार बहा वात्सल्य का...