एक चीस सी उठती है ऐसी, जो जाने का नहीं लेती है नाम। तन की चीस तो मिटा देती है कोई न कोई औषधि, पर ये मन की चीस तो सुबह मिटती न शाम।। मानस में गर राघव न हों, गीता में गर न हों शाम। ऐसा है मां जाई! तेरा ना होना, लगने लगा है घणा सा घाम।। एक चीस सी उठती है ऐसी, जो जाने का नहीं लेती है नाम। घणी खास थी तूं मां जाई, नहीं कह सकते तुझे आम।। कुछ लोग जेहन में सच, ऐसे बस जाते हैं। जैसे बच्चे घर में घुसते ही, मां को आवाज लगाते हैं।। तूं ऐसे ही तो बसी है जेहन में मेरे, आती है याद री,सुबह और शाम। एक चीस सी उठती है सीने में, जो जाने का नहीं लेती है नाम।। तेरे बिना जिंदगी से गिला भी है, शिकवा भी है,शिकायत भी है, धुआं धुआं सा मन लेता ही नहीं विश्राम। रह रह कर याद आती है तेरे लबों पर वो सुंदर मुस्कान।। तेरा नहीं हमारा सौभाग्य है, जो बहन रूप में मिली अनुपम वरदान।। गीता में गर माधव न हों, मानस में गर हों न राम। ऐसे धड़धड़ाती सी ट्रेन से तेरे व्यक्तित्व के आगे, थरथराते पुल सा वजूद था मेरा, अंजु कुमार तेरा प्यारा सा नाम।। एक चीस सी उठती है सीने में, जो जाने का नहीं ल...