काश अगर ऊपरवाले ने दी होती हम को भी जुबान। लबों को फिर न यूँ सीते हम,दर्दे दिल फिर कर देते बयान। दर्द हमे भी होता है, जब इंसा चलाता है हम पर निर्मम कटार। किस जन्म,कर्म का बदला लेता है वो हमसे, क्यों जीना हमारा करता है दुशवार?? माटी से जन्मे,माटी में पनपे,फिर एक दिन माटी में ही तो है मिल जाना। छोटी सी इस ज़िंदगानी में, काहे पाप का बोझ उठाना। हर गलती का प्रायश्चित है, बस अपराधबोध का हो अनुमान। हम बेजुबानो की बेबसी एक दिन बर्बादी का ला देगी फरमान। कयामत के दिन क्या दोगे जवाब तुम,झूठे पड़ जाओगे विद्वान।। काश अगर ऊपरवाले ने दी होती हम को भी जुबान। कह देते हम हिवड़े की कहानी, फिर तुम न हमे करते कुर्बान। जीयो और जीने दो सबको, सत्कर्मों से ही हम बनते हैं महान। बहुत सो लिए,अब तो जाग लो, ओ पाषाण ह्रदय क्रूर इंसान।। मैंने तो कह दी मेरे मन की, मेरी पीड़ा से न रहो अनजान।। हम सब प्रकृति का ही तो हिस्सा हैं, क्यों लेते हैं हम किसी की जान।। Snehpremchand