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जाने चले जाते हैं कहां

जाने चले जाते हैं कहां वो इतने प्यारे वो इतने अजीज हमारे एक हूक सी उठती है सीने में, सुलगते हैं जिया में यादों के अंगारे बैचैनी रात भर लेती रहती है करवटें गवाह होती हैं इस बात की चादर की सलवटें।। मौन से होने लगता है संवाद नयन भी पल भर में सजल हो जाते है  खामोशी करने लगती है कोलाहल भीड़ में भी हम खुद को तन्हा पाते हैं। धुआं धुआं सा हो जाता है मन कंठ भी अवरुद्ध सा हो जाता है पल पल सजल हो जाते हैं नयन हर मंजर धुंधला हो जाता है।। बैचैनियां खामोशियां सबकी होती है जैसे एक जुबान अहसास भी सीले सीले से,अल्फाज भी हो जाते हैं परेशान।।

जाने कहां

दुनिया से जाने वाले,जाने चले जाते हैं कहां?? जहां भी जाते हों,पर जेहन से कहीं नहीं जाते।। माटी माटी मे मिलती है पर अहसास सदा ज़िंदा रहते हैं।                      स्नेह प्रेमचंद