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भेज रहा हूं स्नेह निमंत्रण(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

भेज रहा हूं स्नेह निमंत्रण पढ़ मेरी बहना तूं आ जाना मैं प्रेम कपाट रखूंगा खोल कर तूं बिन दस्तक के आ जाना यूं मत आना कि आना चाहिए था जब दिल में उठें हिलोरें, तभी मेरे शहर का टिकट कटाना कितने हक से लड़ती थी तुम बचपन में, छीना झपटी में भी स्नेह का बन जाता था फसाना पल भर भी अलग नहीं रहते थे बचपन में, सच में बदल गया है जमाना बेशक कह नहीं पाता मैं पर जब जब आती है तूं चला जाता हूं अतीत में मैं भी लगता है भला सा तेरा मेरी चौखट पर आना याद आता है मुझे जब जिंदगी का परिचय हो रहा था अनुभूतियों से,संज्ञा सर्वनाम विशेषण का जिंदगी गा रही थी गाना माना राहें बदल गई हैं मां जाई तेरी मेरी अब,पर एक ही परिवेश एक ही परवरिश में शुरू हुआ था जिंदगी का तराना मां की महक आती है मां जाई तुझ में देख मुझे कभी तूं भूल न जाना बेशक मसरूफ हो गए हैं हम अपनी अपनी जिंदगी में, पर जब भी मिलती हो,याद आ जाता है वो गुजरा जमाना

भेज रहा हूं स्नेह निमंत्रण(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

भेज रहा हूं स्नेह निमंत्रण, तूं बिन दस्तक के आ जाना। मां बाबुल नहीं तो क्या, मैं तो हूं ना!  दुविधा कोई ना मन में लाना।। मां जाई से गहरा नाता और भला क्या होता होगा???? ये नाता तो जीवन का  सबसे मधुर तराना।। नए रिश्तों के नए भंवर में  माना हम उलझ से जाते हैं। पर पुराने नातों को जड़ों सा गहरा, अंतर्मन के गलियारों में पाते हैं।। इन जड़ों को स्नेह रस से सींचने  मेरी मां जाई तूं आ जाना। भेज रहा हूं स्नेह निमंत्रण तूं बिन दस्तक के आ जाना।। मां बाबुल नहीं तो क्या, *मैं तो हूं ना* देख कोई दुविधा ना कभी मन में लाना।। मां थी जब तूं इतनी दूर से भी  कैसे भाग भाग कर आती थी। दो दो बच्चों की मां हो कर भी, तूं मां संग फिर बच्ची सी हो जाती थी। तेरे आने से मां भी कैसे बरस सोलह की हो जाती थी। उसके चेहरे की रौनक उसकी आंतरिक खुशी दिखाती थी। कैसे मन से उपहारों का  वो ढेर तेरे सामने लगाती थी। हौले से तेरा हाथ थाम कर, तुझे भीतर ले जाती थी। ऐसा निश्चल पावन प्रेम देख  मेरी आंखें नम हो जाती थी।। **ना मां थकती थी ना तूं थकती थी** तुम दोनो घंटों घंटों बतियाती थी...