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थप्पड़। thought by snehpremchand

थप्पड़  मात्र थप्पड़ ही नहीं है थप्पड़ की थाप इतनी  गहरी होती है जिसकी गूंज हमारे अंतर्मन में नहीं, पूरे ब्रह्मांड में गुंजित होती है।हमारे चेतन, अचेतन मनों का स्थायी हिस्सा बन जाती है।थप्पड़ को भावों को कुचलने वाला बुलडोज़र कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।थप्पड़ तो पूरे वजूद को काटने वाला निर्मम हथौड़ा है।इसका जिस्मानी दर्द बयां किया जा सकता है  पर जेहानी दर्द को बयां करने के लिए आज तलक कोई अल्फ़ाज़ ही नहीं बने हैं।थप्पड़ तो वो सुनामी है जो हमारे व्यक्तिव, हमारे अस्तित्व को हिला कर तो रख देती है और चित्त से चिंतन चुरा कर चिंता दे जाती है। अहसास ए दर्द को बयां करना आसान नहीं।थप्पड़ एक ऐसा सक्रिय जवालामुखी है, जिसमे से पीड़ा का लावा सतत रिसता रहता है।ज़ख्म को नासूर और चिंगारी को शोला बना देता है।ये तो वो मिटिया तेल है जो रिश्तों की गरिमा को लम्हा दर लम्हा जला कर राख कर देता है।थप्पड़ जिस्म पर नहीं रूह पर की गई चोट है।इसके जिस्मानी निशान तो कुछ समय के बाद चले जाते हैं,पर जेहानी निशान तो सदा के लिए ज़ेहन में अंकित हो जाते हैं।थप्पड़ वो नाग है जो सहजता को डस लेता है।वो अपमान है जो दावानल की...