लम्हा दर लम्हा गुजरती रहती है ज़िन्दगी, पता ही नहीं चलता। जाने कितनी ही यादें हौले हौले धुंधला जाती हैं,पता ही नहीं चलता।। कब खवाईशें समझौते में बदल जाती हैं, पता ही नहीं चलता।। कब जिद्द,ज़िम्मेदारियों का दुशाला ओढ़ लेती हैं,पता ही नहीं चलता।। बच्चे धीरे धीरे कब बड़े हो जाते हैं,पता ही नहीं चलता।। पर जब दूर चले जाते हैं,बहुत ज़्यादा पता चलता है।।। स्नेह प्रेमचंद