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सांझ ढले(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

ओ परिंदे thought by sneh premchand

ये वही बागबां तो हैं जो किलकारी से तुम्हारी कितना खुश हो जाते थे। देख तुम्हारी मोहिनी सूरत,वो अपनी थकान मिटाते थे। अब देख कर भी अनदेखा करते हो तुम उनको, कौन से हैं वो दृश्य,जो तुम्हारे चक्षुओं को इतना लुभा गए? पर निकलते ही परिंदे आसमा के हो गए।। वो बापू की लाठी की पहचानी सी खट्ट खट्ट वो बूढ़ी माँ की खाँसी की थकी सी खन खन क्यों नश्तर से तुम्हारे कानो में चुभो गए? क्यों दिखता नही तुम्हे ऐसा दृश्य ऐसा चश्मा तुम्हारी आँखों पर कौन चढ़ा गए? कर लिया तुमने भी सहज स्वीकार इसको, तुम तो पीड़ा अपनो की ही बढ़ा गए। इनके उपवन के ही तो पुष्प हो तुम, क्यों अपने प्रेम की महक से उनको नही महका गए? बड़े प्रेम से बड़े जतन से पाला था तुमको फिर इतने उदासीन से कैसे हो गए? जो लाये थे तुम्हे जग में बंधु, वो अपने इतने बेगाने कैसे हो गए?? पर निकलते ही परिंदे आसमा के हो गए। भूल गए पलनहारों को,एक नई दुनिया मे खो गए।