जहां दर्द पाता हो चैन, जहां बेधड़क से गुजरे दिन रैन, जहां खुल कर हंसना खुल कर रोना आए, जहां बिन कहे ही मन की बात समझी जाए, जहां घर मे घुसते ही माँ नज़र आए, जहां पापा अपनी ही धुन में कुछ जाते हों समझाए, जहां भाई बहन अपने अपने कहानी किस्से बेहिचक दोहराएं, हो जाए गर मतभेद कोई, झट से आ कर एक दूजे को मनाएं, जहां दोस्त घर के बाहर घण्टों खड़े जाने क्या क्या बतियाए, जहां भविष्य की चिंता कभी वर्तमान को न डसती जाए, जहां रूठने का पूरा मिलता हो अधिकार, जहां मनाने वाले भी मनाने को झट से होते तैयार।। जहां कोई ओपचिकता कभी नहीं देती थी पांव पसार। जहां जिंदगी का परिचय हो रहा होता है अनुभूतियों से, जहां नए नए अनुभव बन रहे होते हैं व्यक्तित्व का आधार।। जहां हो भी जाती थी कोई गलती, *कोई बात नहीं*कहने वाले होते थे हकदार।। मां मां के आंचल में हर दर्द को।मिलता हो चैन, जहां बाबुल के साए तले चिंता रहित से गुजरते थे दिन रैन।। उसे अपना घर कहते हैं।। स्नेह प्रेमचंद