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एक दिन ये आ ही जाता है(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

पल,पहर,दिन,महीने साल बीत कर,एक दिन ये आ ही जाता है। कार्यक्षेत्र में कार्यकाल हो जाता है पूरा,समय अपना डंका बखूबी बजाता है।। हौले हौले अनेक अनुभव अपनी आगोश में समेटे,बरस 58 का इंसा हो जाता है, हो सेवा निवर्त कार्यक्षेत्र से,कदम अगली डगर पर वो फिर बढ़ाता है।। पल,पहर,दिन,महीने-------------आ ही जाता है।। ज़िन्दगी की आपाधापी में कई बार कोई शौक धरा रह जाता है, जीवनपथ हो जाता है अग्निपथ,ज़िम्मेदारियों में खुद को फंसा हुआ इंसा पाता है।। पर अब आयी है वो बेला, जब भाई हमारा खुशी से कार्यमुक्त हो कर अपने घर को जाता है, शेष बचे जीवन में, उत्तरदायित्व बेधड़क सहज भाव से निभाता है। पल,पहर,दिन,महीने,साल-------आ ही जाता है।। ज़िन्दगी का स्वर्णकाल माना हम कार्यक्षेत्र में बिता देते हैं, पर शेष बचा जीवन होता है हीरक काल,यह क्यों समझ नही लेते हैं।। सेवा निवृत होने का तातपर्य कभी नही होता, क्रियाकलापों पर पूर्णविराम। किसी अभिनव पहल, या दबे शौक को बाहर आने का मिल सकता है काम।। यादों के झरोखों से जब झांकोगे,तो जाने कितने अनुभव अहसासों को पा जाओगे, कितनो को ही न जाने मिली ही न होगी अभिव्यक्ति, उन्हें इ...