एक बार फिर आ जाओ भोले निर्भयता का करो संचार। फिर खोलो नेत्र तीसरा अपना, कर दो जग पर फिर उपकार।। एक बार फिर हो रहा सागर मंथन सा, पी लो गरल,कर दो अमृत दान। करो एक बार फिर तांडव ऐसा, दे दो सबको जीवन दान।। सागर मंथन सा चल रहा है, व्यथित है मन,आहत है इंसान। गरल भी निकलेगा,अमृत भी निकलेगा दोनो का ही है प्रावधान।। जगत चेतना हो,हो आदि अनंता सौ बात की एक बात है, हो तुम ही भोले कण कण रमन्ता।। स्नेह प्रेमचंद