दौर बदल जाते हैं, सच में दौर बदल जाते हैं। जिस घर में हम बड़े हक से, जीवन का अहम सा हिस्सा बिताते हैं।। वहां फिर एक रात बिताने से भी हम इतना क्यों कतराते हैं।। बुआ की जगह भतीजी के कपड़े, उन्हीं अलमारियों में सज जाते हैं।। मां बाबा का प्यारा कमरा, भाई भाभी अपनाते हैं।। मेज़ वही है खाने का, बस खाने वाले किरदार बदल जाते हैं।। वही आंगन है वही रसोई, रहने वाले हकदार बदल जाते हैं।। पहले मैं,पहले मैं,करके लड़ते थे जो हम बड़े हक से, पहले आप,पहले आप, करके औपचारिकता सी निभाते हैं। होती नहीं थी जब कोई ख्वाहिश पूरी, रूठ जल्द से मुंह फुला लेते थे। अपनी मर्ज़ी से ही एक दूजे को, चीजें देते थे। अब तो रूठना ही छोड़ दिया, जबसे मनाने वाले चले गए हैं, सच में सोच के, आयाम ही बदल जाते हैं।। लम्हा लम्हा ज़िद को समझौते में बदलता पाते हैं। सच में ही दौर बदल जाते हैं।। अधिकार और ज़िम्मेदारी, ये भी दोनों ही बदल जाते हैं। कहीं कुछ मिलता है, तो कहीं कुछ छोड़े जाते हैं। ज़िन्दगी का परिचय हुआ था, जहां नए नए एहसासों से, वहीं खुद को बेगाना सा पाते ह...