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क्या भूलूं क्या याद करूं मैं(( यादें बचपन की स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

क्या भूलूं क्या याद करूं मैं???? बहुत कुछ अपने आप ही  आया याद, जब दी दस्तक अतीत के द्वार।। एक दूजे से ही होता था,  हम सब का आपस में परिवार।। कोई राग ना था,कोई द्वेष ना था, था तो बस मन में प्यार ही प्यार।। कोई चित चिंता गर होती थी,  तो होती मां की गोदी थी। पिता का सिर पर साया था, ना लगता कोई पराया था।। मतभेद बेशक हो जाता था, पर मनभेद से कोई नहीं नाता था।। एक पुरानी तस्वीर क्या मिली, अतीत में ऐसे ले गई,जाने क्या क्या याद आ गया। याद आया वो, वो घर के सामने *एल आई सी का दफ्तर*वो दफ्तर में *जामुन और खजूर* के पेड़,वो पेड़ों पर चढ़ कर जामुन के पेड़ को जोर से हिलाना,वो हमारा नीचे चादर बिछाना,वो कच्चे खजूरों को महीनो तूडी मे दबाना, उनके पक्के होने का इंतजार,  जैसे   मिलेगा खजाना, वो डीलमडील कुहाड़ खेलना, वो ताशों की बाजी, बाजी में कोट पीस, वो पापा का जीतने पर तीन की दाल तीन की भुजिया कह कर जश्न बनाना,  वो इमली के बीजों से लूडो खेलना, वो भिंडी के डंठल दीवार पर चिपकाना, वो इंदर का आना, वो हुक्का गुड़ गुडाना, वो शनिवार को पापा का गांव जाना, वो भर कर ट्रॉली गेहूं लाना, व...

साथ ही नहीं