कर्मो की खुद ही होती है एक मधुर,सश्क्त सी जुबान,नही पड़ती ज़रूरत उन्हें शब्दों की,कर्म ही बन जाते हैं उनके अस्तित्व की पहचान,ऐसे ही कर्मो की कुदाली माँ नेे मेहनत के खेत में चलाई थी,सफलता के अंकुर फूटे उस खेत में,माँ हर शाम तेरी याद आयी थी,तेरे बारे में कुछ कहना है सूरज को दीप जलाने के समान, पर कहेंगे और याद करेंगे तुझे,है तुझ से ही हमारी पहचान